राजीव मित्तल
सड़क, बिजली और पानी- इन तीनों की तलाश में कई दोपाये चारों दिशाओं की ओर भेजे जा चुके हैं और भेजे जा रहे हैं। जो कभी गये थे वे खाली हाथ लौट आये और अब डीए, टीए वसूल आराम फरमा रहे हैं। जो भेजे जा चुके हैं उन्हें डीए-टीए देकर भेजा गया है इस चेतावनी के साथ कि लौट जरूर आना भले ही हाथ खाली हों अन्यथा लक्षमण की नाराजगी सुग्रीव को झेलनी पड़ जाएगी। कई साल से इनकी खोज चल रही है। कन्दराएं, चट्टानें, रेगिस्तान, नदियां, जंगल सब जगह छान लीं पर इनका कहीं पता नहीं चला है। लेकिन तलाश जारी है। वैसे कई जगह से यह सुझाव आया है कि इस बार का चुनावी मुद्दा अगर इन तीनों को बना दिया जाए तो इन्हें खोज निकालने में मुश्किलें कम आएंगी। पर सुना है कि किसी ऋषि का श्राप है कि जो बरसों से चले आ रहे भूरा बाल, अजगर, माय वगैरह शब्दों का उच्चारण त्याग इन्हें चुनाव में उछालेगा उसका भट्टा बैठ जाएगा। पर इस घोर कलयुग में भी एक गिलहरी समुद्र पर पत्थरों का पुल बनाने में राम के वानरों की मदद कर रही है। एक आवाज उठी है कि बिजली, पानी और सड़क होगा चुनावी मुद्दा। यह आवाज एक बड़े दल की एक छोटी सी नेतृ की है। यह दल है तो पुराने आर्यावर्त तक फैला हुआ, पर कर्म की गति के चलते अब कोई भी आवाज कांखते हुए उठाने की मजबूरी बन गयी है। खोने को कुछ नहीं इसलिये कुछ पाने की आकांक्षा से मीलों दूर, तभी सड़क, पानी और बिजली जैसे शापित मुद्दे फूल के समान झर रहे हैं। यह तो था समस्या का आध्यात्मिक पक्ष। लौकिक समस्या जरा गहरी है वह यह कि सड़क कौन बनवायेगा। बिहार में सड़क बनवाने के लिये गिट्टी-रोड़ी-अलकतरे की जरूरत बहुत बाद की बात है, पहले तो यह कि असलहे कौन-कौन से हैं, कारतूस का भंडार भरा है कि नहीं, उन असलहों को टांगने वाले कंधे कितने हैं-इनका हिसाब किताब पहले बाकी अगले सावन में। उसके बाद आता है निविदा का मामला-इसमें असलहे और मूछों की लम्बाई-चौड़ाई आधारभूत जरूरत बन कर सामने आती है। फिर तय होता है कि खून कितना गिरेगा। वैसे सड़क न भी हो तो रास्ते की लम्बाई-चौड़ाई तो अपनी जगह कायम है ही। उसी को देखते हुए वाहन लुढ़काइये, पैदली या दोपहिया चालक अपनी राह खुद तलाश लेगा। नीचे गिरेगा या ऊपर जाएगा। जैसे भी सड़क पर खून की कमी कभी नहीं होगी। इधर, ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार यही तय पाया गया कि बिजली कभी-कभार मायके वालों की तरह आये तभी ठीक है। इससे उनकी इज्जत बनी रहती है। रहा पानी, तो उसके लिये इतना पोखर और नदी-नाला हैं कि अगले दस बरस तक कोई टोटा नहीं। नल के टपकने पर बाल्टी लगाना निरी बेवकूफाना हरकत है। गंगा आये कहां से गंगा जाये कहां रे से क्या मतलब, जो सामने है चाहे रुका हुआ चाहे बहता वही सच है। उसी में सारे धार्मिक-नैतिक और शारीरिक कर्म करने की पूरी छूट है। लीजिये हो गया न बैठे-बिठाये तीनों समस्याओं का समाधान! लेकिन फिर भी आध्यात्मिक खोज जारी रहनी चाहिये क्योंकि उसी से कई परिवारों के पेट पल रहे हैं।
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