रविवार, 26 दिसंबर 2010

ऐसी शहादतें जरूरी हैं?

राजीव मित्तल
सरकार उनकी बहादुरी की दाद दे रही है, परिवार के लोग बिलख रहे हैं, साथियों की आंखें नम हैं, वरिष्ठ उन्हें याद कर रहे हैं, कनिष्ठ सहमे हुए हैं और बिहार की जनता की तरह हम स्तब्ध हंै -इन सब के होने में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं। कुछ दिन बाद सब कुछ सामान्य हो जाएगा, किसी के साथ बहुत जल्द, तो किसी का घाव पता नहीं कब तक रिसता रहेगा। अब चुनाव नजदीक हैं, इसलिये समय का तकाजा है कि नेतागिरी का चक्का पूरे जोर से घूमे क्योंकि जैसे किसी एसपी का शहीद होना रोज-रोज नहीं होता वैसे ही चुनाव भी रोज-रोज नहीं होते। और जो ऐसी मौत मरता है तो उसके शव पर मुंह से निकालने के लिये करुण शब्दों का भंडार तो है ही, बजाने को शोक संगीत भी है और है वादों की फेहरिस्त भी। ये तीनों कंडेस्ड कॉफी की तरह कहीं भी कैसी भी हालत में तैयार किये जा सकते हैं। यही चुनावतंμा का अद्भुत गुण है। मरते-मरते भी एसपी केसी सुरेन्द्र बाबू एक रिकार्ड बना गये कि वह झारखंड से अलग हुए बिहार के पहले आईपीएस थे, जो नक्सली हिंसा का शिकार हुए। अब यहां यह पूछने की हिमाकत करनी पड़ रही है कि सर, अखंड बिहार के आखिरी शहीद एसपी अजयकुमार सिंह.....? जी हां, वही अजयकुमार सिंह, जिनकी शहादत का भी इतना ही, इन्हीं शब्दों में बखान किया गया था, मुआवजे की बड़ी-बड़ी रकमें जुबां से उछाली गयी थीं, लेकिन बखान इतना ज्यादा गीला हो गया कि सुखाने के लिये मिट्टी डालनी पड़ी और जुंबा से उछली रकमें ऊपर उड़ रही चील ने झपट लीं। तभी तो अजयकुमार की बहन की शादी चंदे से हुई, और बाकी काम उनके नाम से बनाये गये ट्रस्ट से चल रहा है। यह सब भी उनके साथियों, चाहने वालों की कृपा से। लेकिन एसपी केसी सुरेद्र बाबू के परिवार को परेशान होने की जरूरत नहीं क्योंकि अजयकुमार की शहादत बंटवारे के चलते हवा में उड़ गयी थी। जिस लोहरदग्गा में उन्होंने जान गंवायी थी, कुछ दिन बाद वह झारखंड के पल्ले पड़ा तो कैसे वादे और कैसी मदद। वह जिसने लोहरदग्गा अपने पास रख लिया वही जाने। लेकिन स्वर्गीय सुरेन्द्र बाबू, आपकी आत्मा कतई परेशान न हो, आपके यहां कोई बेसहारा नहीं रहेगा क्योंकि अब बिहार अखंड है। जो कहा वह होकर रहेगा। मौत से क्या डरना उसे तो आना है-आपका यह वाक्य मान लीजिये कि जय जवान जय किसान की माफिक अमर हो गया। पर, एक सवाल फिर भी मन में उठ रहा है कि आप बेवजह क्यों शहीद हो गये? क्या झारखंड बनने के बाद सारे नक्सलियों ने चाईबासा, लोहरदग्गा, गिरीडीह को मुजफ्फराबाद, पेशावर, कराची या लाहौर मान बिहार से मुंह मोड़ लिया था? उनके उन्मूलन के लिये जो करोड़ों रुपये आये वह क्या अमानत समझ लौटा दिये गये थे। उन अभियानों का क्या हुआ, जो दसियों साल से फलाने-ढिमाके ऑपरेशन का नाम देकर शुरू किये गये थे? झारखंड के अलग होते ही क्या बिहार ने यह समझ लिया था कि चलो बला टली, अब रंगदारों के साथ शतरंज बिछेगी? बिहार का कौन से हिस्सा माओवादियों, उग्रवादियों या नक्सलियों से अछूता है, जिनकी किसी भी खूनी हरकत पर आंखें चढ़ा कर पूछा जाता है-ऐं, तुम यहां भी? जाओ यहां से, या शांत बैठो, तंग न करो, हमारे पास दम मारने की भी फुर्सत नहीं है।

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