राजीव मित्तल
अंतिम सूचना थी कि उनका पता लग गया है। लेकिन रणनीति बदल दी गयी है और अब मान-मनौव्वल से काम होगा। घटना के 26 वें दिन की आधी रात यानी नरम पड़ने से कुछ घंटे पहले तक छापेमारी, दावे, वादे, आरोप, शक की सुर्इं यहां-वहां घुमाने, कोसने व झींकने का काम पूरी शिद्दत से कई राउंड पूरे कर चुका था। विभिन्न रूपों में यह भी सामने आया कि अपनी तरफ वाले भी कम जिम्मेवार नहीं, सो, जो सामने पड़ा, लाइन में खड़ा कर एक-दो-तीन कह जिला बदर कर दिया गया। एक अफसर की चरिμापंजिका में कुछ लाल निशान भी पाए गये, जिनसे स्पष्ट हो रहा था कि उसका नक्सलियों से ‘कुछ-कुछ’ है।
हुआ क्या था यह जानना बहुत जरूरी है। बिहार सैन्य पुलिस एक ऐसी फोर्स का नाम है, जिसके एक हाथ में डंडा थमा, दूसरे हाथ से एके-45, इनसास राइफल या एसएलआर यह कह कर ले ली जाती है कि यह बच्चों के खेलने की चीज नहीं है। लाओ, इसे सजा कर रख दें। जिस कोठरी में ये हथियार खड़ी मुद्रा में रखे जाते हैं, मौर्यकाल से ही उसे लाड़ में कोत कह कर पुकारा जा रहा है। उसके दरवाजे पर ताला मार कर बाहर μिास्तरीय पहरा बैठा दिया जाता है। जब अगस्त के 26 वें दिन राइफलों को तेल पिलाने की वीकली कवायद के लिये कोत के दरवाजे पर जाना हुआ तो उसकी सांकल टूटी हुई थी और अंदर विभिन्न ब्रांड के कुल जमा पांच आग्नेयास्μा नदारद थे। पता चला कि चोर कई दिन से रेगुलर रात दो बजे आते थे और सांकल को थोड़ा सा घिस कर चले जाते थे।
पूछताछ हुई तो पता चला कि सबसे अंदर के घेरे वाले पहरेदारों को आम के पेड़ों की वजह से कोत का दरवाजा ही नहीं दिखायी देता था, बीच के पहरेदारों को न अंदर का और न ही बाहर का नजारा दिखता था क्योंकि एक तरफ शौचालय और दूसरी तरफ लीची के गाछ, सबसे बाहरी चक्र के पहरेदारों को बाहर से कौन आता है-भीतर से कौन जाता है, यह जानने की इसलिये जरूरत नहीं थी क्योंकि ऊपर से स्पष्ट आदेश था कि अपने काम से काम रखो। खैर, अब त्योहार का सीजन सिर पर है, एक महीने की थकान मिटाना जरूरी है, इसलिये बदली रणनीति के तहत कुछ ऐसा किया जा रहा है ताकि अगला खुद आ कर कोत में हथियार रख जाए, रसीद-वसीद बाद में दे दी जाएगी।एक बात चलते-चलते कि तीन साल पहले भी बीएमपी के इसी कोत से दो राइफलों और दो सौ गोलियों की चोरी हुई थी। जांच भी चली, जो फिलहाल किसी हश्र के इंतजार में है।
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