रविवार, 26 दिसंबर 2010

घूमते पहिये से कौन सा बैर है बिहार को

राजीव मित्तल
ट्रक से कोई कुचल मरा तो फलाना एनएच जाम, ट्रक ने बस को टक्कर मारी तो सड़क जाम के साथ-साथ बगल से निकल रही बरौनी एक्सप्रेस का टेंटुआ भी दबा दिया, टीटी ने बिना टिकट याμाी को पकड़ा तो उसके साथियों ने सप्तक्रांति रोक दी, किसी की हत्या हो गयी तो ढिमाका एनएच जाम, कोयला चोरों को पकड़ा तो उनके गांव वालों ने जिस ट्रेन को चाहा उसे खड़ा कर दिया, छाμाों या किसी दैनिक याμाी के लिए एसी कोच नहीं खोला गया तो ट्रेन पर पथराव। यह है बिहारियों का गुस्सा, जो घूमते पहिये के खांचों में हर मिनट लोहे की छड़ अड़ा रहा है। लगता है कि जैसे गतिशीलता से कोई पूर्वजों का बैर है बिहार को, जो अब निकल रहा है। जबकि सबसे गतिशील समाज रहा है यहां का। इतिहास को ही झांक लें बिहारी एक बार। महाभारत के बाद ईसा के छह सौ साल पहले से लेकर ईसा के छह सौ साल बाद तक कश्मीर से कन्याकुमारी और कटक से अटक यानी तब के आज से ज्यादा विशाल भारत का केंद्र बिंदु रहा है बिहार। फिर इन चौदह सौ सालों में किस मक्खी ने छींक मार दी कि बिहार का विकास का पहिया चूं चकर चूं की आवाज भी नहीं निकाल रहा। अब देखिये न, 15 अक्टूबर की रात हुईं दो हत्याओं का नजला गिरा बेचारी पहले से ही गरीब की धोती की तरह तार-तार हुई जा रही एनएच-28 पर। मोतिहारी जाने वाला या वहां से पटना आ रहा हर वाहन तीन किलोमीटर के दायरे में ठहर गया। जाम इसलिए लगाया गया ताकि प्रशासन और पुलिस पर दबाव बने कि वे अंधेरे में तीर चला कर अपराधियों को पकड़ लें और मरने वालों के परिजनों को मुआवजा मिल जाए। यानी नाकाराओं को हरकत में लाने के लिए तुरही बजाना। और यही कहानी इस एनएच पर महीने में तीन-चार बार दोहरायी जाती है। बिहार के चप्पे-चप्पे का यही हाल है। और जो बेचारे आए दिन यहां के रेल जाम या सड़क जाम में फंसते हैं जरा उनके दिल का हाल भी तो कोई जाने। विदेशी हों या देशी, बिहारी हों या गैर बिहारी मन ही मन में अपने को कोसते हैं कि बिहार से होकर क्यों निकले। या कलकत्ता-दार्जिलिंग जाने के रास्ते में यह बिहार क्यों धर दिया गया। पहले से ही न जाने कितनी दुश्वारियों से घिरे इस राज्य में क्या शासन, क्या प्रशासन, क्या अपराधी, क्या पुलिस, क्या जनता और क्या नेता-सब कोढ़ में और खाज कर रहे हैं। लगता है कि आजाद देश के आजाद बिहार की आजाद जनता अपने भाग्यविधाताओं के कारनामों से इस कदर आजिज आ चुकी है कि उसके सामने अराजक होने के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं बचा है। अब तो हाल यह है कि अगर किसी सड़क पर किसी भलेमानस की मुर्गी किसी वाहन के नीचे आ कर प्राण त्यागदे तो कसम से एक शानदार जाम लगते देर नहीं लगेगी। वैसे क्या देहात और क्या शहर, राज्य का हर इलाकावो सुबह कभी तो आएगी के भाव से जी रहा है। उसका हर चैन छीन लिया गया है पर उसके अंदर छठ को लेकर सदियों से चला आ रहा उत्साह बरकरार है। हर सावन में सुल्तानगंज से गंगाजल लेकर देवघर में शिव को नहलाना उसके जीवन का एकमाμा मकसद है तो ऐसे बिहार में तो दुश्वारियां भी कभी न कभी तो पनाह मांग ही जाएंगी। कभी-कभी लगता है कि बिहार का हाल कन्नड़ सिनेमा के प्रख्यात अभिनेता राजकुमार जैसाहो गया है, जिन्हें वीरप्पन ने अगवा कर कई दिन अपने साथ घने जंगलों में रखा था। इसमें अनोखी बात यह है कि अपह्त होने के कुछ दिन बाद ही राजकुमार को वीरप्पन का साथ भला लगने लगा था।

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