मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

याद आयी आधी रात को

राजीव मित्तल
सुनो जी बड़ी गड़बड़ी हो गयी। क्या हुआ क्यों नींद खराब कर रहे हो? अरे सुनो भई, विकास का तो हमें याद ही नहीं रहा। अब क्या करें? समय बहुत कम है। अच्छा जरा बत्ती जलाओ। तब तक हम बाहर चांद-तारे देख कर आते हैं। शायद याद आ जाए बचपन में सुनी कोई कहानी। एक काम और करो, उनको फोन लगाओ, उनसे भी बात करते हैं। नहीं समझ में आ रहा कुछ, अच्छा भाषणों की पुरानी फाइल निकालना, देखें उसमें से ही कुछ मसाला मिल जाए। अरे, दो बज गये, अभी तो कुछ सूझा भी नहीं। कांसे के बरतन में रखा पानी पीकर देखूं क्या, शायद तबियत हल्की हो जाए।
तुम्हें भी कुछ ध्यान नहीं आ रहा? तभी बगल वाले घर से आवाज आयी-हम बिहार की मिट्टी को सोना कर देंगे। यह सुन सांस ही फूल गयी। अब क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा, वह तो मिट्टी को सोना बनाये दे रहा है और यहां मिट्टी का मामला मिट्टी से आगे बढ़ ही नहीं रहा । यह तो बताओ कि आपको विकास का करना क्या है? अरे, बोलना है उस पर, मामला सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन से आगे बढ़ाना है। अब तक तो यह गोटी फिट बैठ रही थी, पर उस कनैडू विधायक ने आकर चिंता में डाल दिया है।
ऊपर से विकास पुरुष का तमगा लगाये घूम रहे उस नदीदे की काट भी तो तैयार करनी है। अच्छा तुम्हीं बताओ विकास क्या होता है? जी, मैने सर्वांगीण विकास तो सुना है पर यह खाली विकास तो मेरे पल्ले भी नहीं पड़ रहा। अच्छा, अब थोड़ी देर चुप रहो, सोचता हूं। अरे हां, याद आया वो गुजराती बगल में आया हुआ है। वो कुछ विकास-विकास बक रहा था। यह भी कह रहा था कि आ जाओ गुजरात, दिखा दूंगा विकास क्या होता है। तो चले जाओ न कल सुबह ही गुजरात। एक चक्कर लगा आना,पता चल जाएगा। और अगर उसको पता चल गया तो! नहीं अभी जाना ठीक नहीं होगा। आज का अखबार देना, उससे पता चल जाए शायद।
हां, देखो न बेवजह परेशान हो रहे थे इतनी देर से। नौजवानों के चेहरे पर लाली लाने का नाम ही विकास है। लेकिन यह तो उस ठग की बोली है। अच्छा छोड़ो-मनोज कुमार की रोटी,कपड़ाऔर मकान का कैसेट तो घर में रखा ही होगा, जरा उसे लगवाओ झुन्नु से, उसे देख कर कुछ आइडिया मिले! काक भुशुण्डि ने अपनी मुंडी हिलायी और गरुड से बोले-अरे कोई तो इस नासमझ को बताये कि स्कूल पर छत, छाμाों के लघु और दीर्घशंका करने की कोई जगह, नदी में नहीं बल्कि नदी पर पुल, खाई में लुढ़के बगैर दौड़ते ट्रक , जुआरियों और बटमारों की पनाहगार बनीं मिलों की चिमनियों से उठता धुआं और बाहर कई सारी चाय की गुमटियां, बाढ़ के साथ बह जाने वाले नहीं बल्कि उसको रोकने के लिये ताकतवर बांध और अपराधियों के साथ मॅार्निंगवॉक करती नहीं उनके पीछे दौड़ती पुलिस ही विकास की मोटा-मोटी रूपरेखा है। तभी अंदर से फुसफुसाहट सुनायी दी-सुनो जी, मुनवा के टिकट का क्या हुआ? बड़कऊ भी बहुत पीछे पड़े हैं। छुटकन की बहुरिया तो खाना-पानी छोड़ स्यापा किये पड़ी है। यह सुन गरुड ने काक जी की तरफ देख जोर से किलकारी मारी।

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