राजीव मित्तल
यह वह पीड़ा है, वह जद्दोजहद है जो बेहद दुनियावी भी है और बेहद निजी भी। दुनियावी इसलिए कि इसमें जीवों से मोह है, ममत्व है और निजी इसलिए कि यह मोह-ममत्व अपनी ही पाली-पोसी रचना को लेकर है। उस रचना को लेकर, जिसमें कवि की कोई कविता नहीं बसती। अंतिम पीड़ा इसलिए कि अस्सी साल से काफी ऊपर चले गए आचार्य जानकी वल्लभ शास्μाी को कहीं से भी, कैसा भी अमरत्व प्राप्त नहीं है और न होने की कोई उम्मीद है। अपने रचनाकार होने की पीड़ा तो उन्होंने ‘कालीदास’, ‘शिप्रा’, ‘मेघदूत’ या ऐसी न जाने कितनी रचनाओं में प्रवाहित कर दी, अब जो पीड़ा उन्हें साल रही है वह कुछ कुत्तों, कुछ गायों को लेकर है या पंछियों को लेकर है।
उन कुत्तों, जिनकी कोई चौंकाने वाली ब्रीड नहीं है, न ही कोई महंगा ब्रांड है और न ही उनकी कोई गाय कामधेनु सरीखी। किसी फैशन या किसी सुरक्षा के तौर पर नहीं, बल्कि लाड़ देने और लाड़ पाने को उनके यहां पल रहे किसी कुत्ते या कुतिया की पूंछ या कान खड़े नहीं मिलेंगे, जो उन्हें जर्मन शैपर्ड या अल्सेशियन का दर्जा दे सके। वे सब किसी सड़क या गली में टूटी-फूटी हालत में पाए गए होंगे, या वह शावक, जो बिन मां के किसी गड्ढे में पड़ा आंखें खोल दुनिया को देखने की कोशिश कर रहा होगा। खुद बेहद बुरी तरह टूट चुके आचार्य की चिंता अब दुनिया में बसने या बसाने या कुछ हासिल करने की नहीं है, अब उनकी सारी चिंता अपने इन लाडलों को दर-दर की ठोकर खाने से बचाने की है, जिन्हें काफी समय से जुतियाये जाने, गाली या लाठी खाने की आदत नहीं रह गयी थी क्योंकि मुजफ्फरपुर के चतुर्भुजस्थान नामक मुहल्ले में, ‘निराला निकेतन’ कांजी हाउस नहीं बल्कि एक इंसान का घर है, जिसमें इन जीवों को बसाने का कहर आचार्य न जाने कब से अपने ऊपर झेलते आ रहे हैं।
इन जीवों के लिए ‘निराला निकेतन’ अब तक तो एक ऐसा स्थान रहा है, जहां का सब कुछ उनका अपना, नितांत अपना है। उन्हें मालूम है कि उनका पालनहार उन्हें सड़क पर दम नहीं तोड़ने देगा, बल्कि किसी एक के भी मरने पर घर का ही कोई कोना उनके लिए सुरक्षित हो जाएगा। आचार्य उनके लिए मोहल्ले वालों से लड़ते आ रहे हैं, शहर भर की हंसी का पाμा बने हुए है, शहरवासियों पर आचार्य का कुत्तों, गायों से ऐसा लाड़, ऐसा दुलार इस कदर हावी होे गया है कि उनका मजाक उड़ाते हुए ठहाके लगाना आम बात हो गयी है। पर आचार्य भी किसी की परवाह न करते हुए अपनी ‘छुटकी’ में अपनी बिटिया को तलाश चुके हैं, जो उन्हें बेटी की ही तरह स्नेह करती है।
आचार्य का यह पशु पे्रम पता नहीं क्यों मेनका गांधी के अप्रतिम पशु प्रेम की याद किसी तरह नहीं दिलाता, न ही पुणे की उस बुजुर्ग महिला का, जो रुपये-पैसे से दमदार है और दो सौ ऐसे ही जीवों को पालने के लिए ट्रस्ट बना चुकी है, याद आती है तो रूसी रचनाकार एलेक्जेंडर कुप्रीन की एक कहानी के एक पाμा की, उस सड़कछाप लड़के की, जो अपने सड़कछाप कुत्ते को एक अमीरजादे की कैद से निकालने के लिए रात के अंधेरे में जान की बाजी लगा देता है।
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