मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

तलाश खतरे के निशान की

राजीव मित्तल
हर साल की तरह इस वर्ष भी पहली बौछार पड़ते ही हर पानी वाली जगह पर खतरे के निशान तलाशे जाने लगे हैं, जिनके मिलते ही डरावने सपने आने शुरू हो जाएंगे। बिहार में कुछ जगह तो ऐसी हैं, जहां लू चलना बंद होते ही किसी भी नदी का पानी यू ं ही किनारे तोड़ कर खेतों में भरने लगता है, सड़कों पर बहने लगता है और घरों में घुसने लगता है। सालाना महोत्सव की तैयारी का यही समय उपयुक्त माना गया है। यही समय है जब कई दावे एक साथ किये जाने लगते हैं कि तटबंध नहीं टूटेंगे, नदियों का तल खाली करा दिया गया है, इसलिये हर नदी का पानी बस इतना ही बढ़ेगा कि बच्चे तक उसका मजा ले सकें। और वैसे भी इस बार मौत ने खतरे के निशान की परवाह न करते हुए अपना कोटा पूरा कर लिया है। गरम हवाओं ने और इनसेफलाइटिस ने इतनी जानें ले ली हैं कि बदहजमी हो गयी है। इसलिये चिंता की कोई बात नहीं। इनसेफलाइटिस से याद आया कि केन्द्र की टीम कहती है कि मरने वाले इस रोग से नहीं उस रोग से मरे जिसका नाम अभी खोजा जाना है। वैसे हवा में दो-चार नाम हैं, जिनमें से एक नाम छांटने के लिए विदेशों का दौरा तय किया जा रहा है। जबकि स्थानीय बुद्धिजीवी नेताओं का कहना है कि यह इनसेफलाइटिस ही था, भले ही वह कई स्थानीय एमडीओं और एमबीबीएसओं के पल्ले न पड़ा हो।
पूर्वी चम्पारण के निवासी बुधिया राम की मौत के बाद उसकी पत्नी का भी यही मानना है कि डाक्टर ने उसके मरहूम पति के मर्ज को ठीक से समझा ही नहीं। वह पीत ज्वर, काला ज्वर और चेहरे पर निकले लाल दानों में उलझा रहा। अब भी डाक्टरों की देखरेख में कहीं-कहीं दो-चार का मरना जारी है, पर रोग के नाम को लेकर कन्फ्यूजन बरकरार है। चलिये, अब फिर आशंकित बाढ़ की तरफ लौटा जाए। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि लू चलना बंद होते ही नदियों का पेटा भरने लगता है, तो वह काम धड़ल्ले से शुरू हो गया है और इसके पीछे नेपाल की बारिशों का हाथ होने से इनकार नहीं किया जा सकता।
तटबंधों के इम्तिहान का समय आ गया है, यही समय है कि पुल भी अपनी मजबूती का परिचय दें खास कर अगर वे आजाद भारत की देन हैं। अफसोस, सड़कों और पुलियों की हालत शर्मनाक बनी हुई है, जो इस साल के अंत में होने वाले चुनाव तक बनी रहेगी क्योंकि चुनी हुई सरकार ही अपने उन खासुलखास लोगों से सड़क बनाने के टेंडर भरवाएगी, जो इस काम में माहिर हो चुके हैं या जिनकी जाति या धर्म संबद्ध मंμाी जी के जात-पांत से एडजस्ट करता है। हालात को देखते हुए नदियों से सटी सड़कों पर नावें चलाने का पुख्ता इंतजाम है, जिनका काम सड़कों पर चलते हुओं को डूबने से बचाने का होगा। जो सरकारी-गैरसरकारी महत्वपूर्ण व्यक्ति बाढ़ के दर्शन करना चाहेंगे, उनके लिये हेलिकॉप्टरों के इंजनों में ईधन भरवा कर रख लिया गया है। अब तलाश केवल गौतम गोस्वामी जैसे अफसर की है, जो चुल्लू भर पानी में भी डूबने और उबरने का माद्दा रखता हो। इस प्रसंग पर विस्तार से फिर कभी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें