मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

वार्षिक चुहलबाजी की कीमत

राजीव मित्तल
सालो साल हो गये, मिट्टी के टीलेनुमा तटबंधों पर चौसर बिछा कर दांव लगाते कि इस साल हमारे ये जांबाज बाढ़ को जरूर उसकी औकात बता देंगे। इन्हें ऊंचा-नीचा करने, पालने-पोसने में हर साल करोड़ों रुपये इस तरह बरबाद किये जाते हैं जैसे गली-गली में भामाशाह बोरे खोले बैठा है कि आओ राणा जी, अपने वजन के बराबर तोल कर ले जाओ। जबकि जेब उसकी काटी जा रही है, जो आज बाढ़ के पानी से घिरा हाथ फैलाए खड़ा है। कोई भी तटबंध ऐसा नहीं, जिसकी बाढ़ से पुरानी आशनाई न हो। नदियों के फैलते ही ये डोलने लगते हैं और पहले मैं-पहले मैं की पुकार लगनी शुरू हो जाती है।
तब लगती है यौवन से भरपूर नदियों में होड़, कि कौन कितने ढहाएगा। और बाढ़ खत्म होते ही बांधों पर फिर गारे-चूने का लेप लगाने का टेंडर। हां, खेल करोड़ों का ही होगा क्योंकि जान जाने में धेला भी नहीं लगता। अंधे जहान के अंधे रास्ते वाली पंक्ति चरितार्थ हो रही है। पांच साल का मौका जिनके हाथ लग गया है वे दिल्ली में बैठे हैं क्योंकि बाढ़ को गरीब-गुरबों की झोंपड़ियां उजाड़ने, परिवार के परिवार साफ करने, पानी में लाशें तैराने, गांव और शहर बरबाद करने का उद्घाटन कराने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। इसमें शिलापट्ट भी नहीं लग सकते कि सन 2004 में यह बहुुद्देशीय बाढ़ फलाने-फलाने के सौजन्य से आयी। और फिर राष्ट्र-राज्य को भी तो देखना है।
स्थानीय नेताओं ( जिनमें कुछ मंμाी भी कहलाते हैं ) को भी तो कुछ कर दिखाने का मौका मिलना चाहिये न! फिर ये अफसरान किसलिये हैं? ये और इनका अमला कब काम आएगा? बहरहाल, राहत में अभी वो तेजी नहीं है, क्योंकि मौका-ए-दस्तूर नहीं है। गुलगुपाड़ा ज्यादा मचा हुआ है। इस जनता को भी पता नहीं क्या हो गया है, बेवजह हाथपांव चला रही है। यह भी नहीं देखती कि गलत-सलत जगह पड़ गया तो क्या होगा, उसकी सेवा कौन करेगा। ये भी आ रहे हैं तो वो भी आ रहे हैं। समन्दर से मोती निकालने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है। μिापुरा में शहीद हो गये जवान राकेश कुमार झा की लाश को उसके घरवालों तक कैसे पहुंचाएं, क्योंकि घर पानी में डूबा हुआ है, हेलिकाप्टर जा सकता है, पर वो कैसे जाए, बाढ़ देख घबरा रहा है। प्रशासन कहता है कि नाव उलटने से डूब मरे लोगों की संख्या लाशें गिन कर बतायी जा सकती हैं। लाओ जी लाशें लाओ तो गिनाई हो, तब हिसाब लगेगा कि खर्चा कितना बैठगा। अरे, मंμाी जी कहां गये, किसी अफसर ने पूछा। सर, वो सर्किट हाउस के एसी रूम का ताला तुड़वा रहे हैं, जो पता नहीं कौन खाली-पीली तंग करने को लगा गया था। मजाक चालू आहे......।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें