मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

हम किस समाज की बात करें

राजीव मित्तल
चार दिन पहले घटा था यह हादसा। दिन के दो बजे थे। आवाजाही थी, आसपास के मकानों से झांकते चेहरे थे। अन्यथा रेलवे ट्रैक पर खून से लथपथ छटपटा रहीं उन दो युवतियों के गले से केवल मंगलसूμा ही न उतारे जा रहे होते, कटी-फटी उंगलियों से अंगूठियां ही न उतारी जा रही होतीं, पास में पड़े पर्स को खोल कर रुपये ही न निकाले जा रहे होते, मोबाइल फोन पार करने की ही हसरत जोर न मार रही होती, उनके कैरी बैग से पिको के लिये धरी गयीं साड़ियां ही न निकाली जा रही होतीं, कुछ और कर गुजरने की हवस भी पूरी की जा रही होती।
यहां बताना पड़ रहा है कि बहुत साल पहले लिखे गये मराठी उपन्यास ‘चानी’ में एक युवती के शव को भोग कर नदी में फेंकने का लोमहर्षक वर्णन है। इनसान की खाल में एकाध का लक्कड़बग्घा होना आम बात है, पर भीड़ की भीड़ का पशु हो जाना और जो पशु न हो कर भी पशुता को खामोशी से देखते रहें, उनका और सघन पशुत्व कहीं न कहीं निर्मल वर्मा के उस कथन को सच साबित करता है कि हम लाख दावे कर लें, पर यूरोप वाले हम भारतीयों से ज्यादा सहिष्णु और परोपकारी होते हैं।
मुजफ्फरपुर शहर के ठीक बीचोबीच रेलवे ट्रैक को पार करतीं वे दोनों बहनें सुख-दुख की बतकही में इस कदर लीन थीं कि सामने से एकाएक धड़धड़ाती रेलगाड़ी देख वे बदहवास हो दूसरे ट्रैक पर कूद पड़ीं। उस पर भी ट्रेन गुजर रही थी। बचने की कोई तरकीब सूझती, तब तक बड़ी चपेट में आ गयी, उसे बचाने की कोशिश में छोटी भी धक्का खा गयी। बड़ी ने तो कुछ देर छटपटाने के बाद प्राण त्याग दिये। छोटी इसी इंतजार में मौत से जूझती रही कि भीड़ में कोई तो उसे अस्पताल पहुंचा देगा। पर भीड़ मदारी के खेल का सा आनंद ले रही थी, तो कुछ की आंखें निशाना साधने में लगी हुई थीं। तब तक छोटी का मोबाइल घनघनाया, भीड़ में से किसी ने उस पर बात की। फोन घर से ही था। उन्हें हादसे की जानकारी दी गयी। घर से विधवा मां और भाई दौड़ते भागते पहुंचे। घर लाते, अस्पताल पहुंचाने के लिये एम्बुलेंस मंगवाते इतना समय गुजर गया कि छोटी ने भी दम तोड़ दिया।

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