बुधवार, 8 दिसंबर 2010

जब छोड़ना था तो गले ही क्यों लगाया

राजीव मित्तल
चैनली अपने सारे काम करते हुए भी बर्बरीक को याद करती रहती है। उसके साथ भारतीय राजनीति पर ढाई महीने तक हुई चखचख का एक-एक शब्द उसके आगे-पीछे घूमता रहता है। आज उसके आसपास अगर बर्बरीक होता तो वह फिर एक सवाल जरूर उछालती कि बॅाब, विधानसभा हो या लोकसभा कुछ नेता दो-दो सीटों पर क्यों चुनाव लड़ते हैं। क्या दूसरी सीट पुरुष समाज की छिछोरी कहावत साली आधी घरवाली का सा मजा देती है! या यह कि अगर एक से हार गये तो दूसरी इज्जत बचा लेगी! इस बार राजग को केंद्र से उखाड़ फेंकने में सबसे आगे रहे बिहार और उत्तरप्रदेश के दोनों बालमुकुंदों ने ऐसा चुनाव लड़ा कि दोनों राज्यों की एक-एक सांसदी सीट विधवाओं की मानिंद स्यापा कर रही है। बिहार के गबरू लालू प्रसाद मधेपुरा से पिछला हिसाब चुकाने को खड़े हुए तो छपरा से इसलिये कि कहीं शरद यादव फिर पटकनी न दे दें। खैर, इस बार के उनके लाजवाब चुनावी प्रबंधन ने राजग की ऐसी की तैसी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और वह मधेपुरा के साथ-साथ छपरा से भी जीत गये। अब सवाल यह उठता है कि क्या वह दोनों जगह का प्रतिधिनित्व करते संसद में। नहीं न, सो उन्होंने मधेपुरा की सीट से अपना झंडा समेट लिया। कोई उनसे पूछने वाला है कि ऐसा कर उन्होंने वहां के मतदाताओं से ऐसा मजाक क्यों किया। जवाब में हालांकि यही सुनने को मिलेगा कि दो क्या चार-चार सीटों पर चुनाव लड़ने का हक है हमें। पर, लालू जी इतना तो सोचिये कि मधेपुरा सीट पर फिर चुनाव होगा, जिसका खर्च 25-30 करोड़ से क्य कम बैठेगा, यह किसकी जेब से जायेगा। और जब तक चुनाव नहीं होगा मधेपुरा की जनता उस औरत की तरह दरवाजे पर आंख लगाये रहेगी, जिसका पति रात में किसी और के यहां मुंह मारने चला गया है। यह पहली बार नहीं हो रहा है, 1952 में हुए पहले चुनाव से यह खेल चल रहा है पर, इसका कहीं न कहीं कभी तो अंत होना चाहिये। बेसिरपैर की ऐसी पुरानी रवायतों से किसका भला होना है। कम से कम बेचारी जनता का तो नहीं ही। कोई मधेपुरा के लोगों के दिल से पूछे तो यही सुनायी देगा कि हमारे दरवज्जे पर क्या करने आये थे लालू जी! अब हम न घर के रहे न घाट के। यही काम उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने दूसरे तरीके से किया। लगता है कि भाई जी को किसी ज्योतिषी ने समझा दिया होगा कि कब तक एक सूबे पर ही हाथ फेरते रहोगे, दिल्ली जाओ, प्रधानमंμाी की कुर्सी आपके लिये बिलख रही है। आव देखा न ताव लड़ लिये मैनपुरी से और जीत भी गये। पर उनकी इस जीत से मैनपुरी की जनता को क्या मिला-फिर एक चुनाव न! आपने तो बलराम सिंह यादव को पटकनी दे कर मन की मुराद पूरी कर ली पर, जब देखा कि दिल्लीकी गलियों में भटकने से तो सूबेदारी ही भली, तो इस्तीफा देकर फिर विधायकी के दुपट्टे से खेलने लगे। महानुभावों, आप दोनों ने क्या-क्या वायदे नहीं किये होंगे मधेपुरा और मैनपुरी की जनता से। कैसे जोशीले भाषण दिये होंगे कि आपके साथ-साथ वहां की जनता की भी रग-रग फड़क गयी होगी। आपने तो एक छोड़ दूसरी को पकड़ पूरा मजा ले लिया और अब उन नेकबख्तों के मत्थे अपने किसी जिगर के टुकड़े या करीबी चिरकुट को मढ़ देंगे पर वोट तो आपने मांगे थे अपने लिये, न जाने कौन-कौन से सब्जबाग दिखा कर। लेकिन आपके सामने रोने से क्या फायदा, रोया उनके सामने जाये जो बोरी में धरे बास मार रहे ऐसे नियम कायदों को सड़े आलू की तरह निकाल फेंकें।

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