रविवार, 26 दिसंबर 2010

सीवर में विकास का भ्रूण और आस्था

राजीव मित्तल
देश की राजधानी में इस बार छठ व्रतियों को सीवर के पानी में खड़े हो सूर्य को अघ्र्य देना पड़ा। तो क्या हुआ बिहार में तो हर पर्व कचरे के ढेर पर मनाना मजबूरी है। आस्था के साथ ऐसा घिनौना खेल किसी और धर्म में चल रहा है? एक, जी हां सिर्फ एक मझौले शहर का सात सौ सफाईकर्मी खैनी फटकारता हुआ देखता रहे और घाटों के किनारों से मलमूμा की सफाई का काम करना पड़े उग्रवादियों से भिड़ने आए अद्र्ध सैनिक बलों के जवानों को, क्योंकि उन्हें श्रद्धा-भक्ति के साथ यह मजाक रास नहीं आ रहा था। लेकिन हमारे नगर निगमों के सफाई कर्मियों और उनके जहांपनाहों के अंदर बरसों से पैठी गंदगी कुछ नहीं देख रही। उनके लिए सब मिथ्या है, बस, कचरों का ढेर ही है जीवन का सबसे बड़ा सच। चलिये, कचरे में ही सही, आस्था दिख तो रही है, लेकिन उस विकास को क्या कहा जाए, जिसका भ्रूण हर बार गर्भ में ही गिरा दिया जाता है। बिना हाथ-पांव और मुंह का वह भ्रूण उसी कचरे का हिस्सा बन जाता है, जो हर गली-मोहल्ले की शोभा की वस्तु है। बरसों से बिहार में यह खेल चल रहा है। किसी सड़क को बनाने, या उसे ठीक करने, दूर-दराज तक रेलगाड़ियां चलें, इसके लिए पटरियां बिछाने, किसी नदी पर पुल बनाने या बाढ़ रोकने के लिए तटबंधों को मजबूत करने के रास्ते में नेता-माफिया का गठजोड़ इस तरह रोेड़ा बना पड़ा है कि उसे रास्ते से हटाना तो क्या छूने से भी सरकार और हर तरह का प्रशासन घबरा रहा है। बल्कि सच्चाई तो यह है कि वह घबरा नहीं रहा, घबराने का ढोंग कर रहा है। ऊपर से लेकर नीचे तक सबको मालूम है कि बिहार के विकास के साथ खो-खो कौन लोग खेल रहे हैं, लेकिन उन पर अंकुश लगाने वालों का दामन कौन से हाथ साफ करेंगे? इस समय एनएचपीसी के दो आला अफसरों के अपहरण को लेकर जम कर शतरंजी दांव चल रहे हैं, नई-पुरानी दुश्मनियां याद आ रही हैं। इस प्रहसन के दौरान अपह्तों का जो होगा, सोे होगा, पर आज जिनके यहां छापे पड़ रहे हैं, क्या कल चुनाव के समय किसी फायदे के तहत आज की जामा-तलाशियां गलबहियों में तब्दील नहीं हो जाएंगी? कन्याओं की तरह विकास की भ्रूण हत्याओं का मजा सीवर के पानी में उपजा हर वह जीवाणु ले रहा है, जिसको खत्म करने का टीका फिलहाल ईजाद नहीं हुआ है। जिन्हें यह काम बहुत पहले कर लेना चाहिये था वे दर्शक बन खेल में शामिल अपनी टीम का उत्साह बढ़ाने में लगे हुए हैं।

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