रविवार, 26 दिसंबर 2010

क्या फर्क है आसमा खातून और राजेन्द्र बाबू में

राजीव मित्तल
आसमा खातून चार दिन पहले परसौनी इलाके की एक संुदर महिला थी और राजेन्द्र बाबू 43 साल पहले देश के राष्ट्रपति थे। थोड़ी-बहुत और जोे कमीबेशी रही होगी, उन्हें हमारे शानदार नस्ल के इस समाज ने मिटाने में कोई देर नहीं लगायी। आसमा खातून के चेहरे पे तेजाब फेंक उसके बाकी जीवन का एक-एक क्षण कराहते रहने पर मजबूर कर दिया और देश की आजादी के एक ठोस स्तम्भ, गांधी जी के बेहद करीबी और आजाद भारत के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद की धरोहरें दीमक चाट गयीं। दीमकों को ऐसा करने की छूट बाकायदा उनकी आरती उतार कर प्रदान की गयी थी। उन पर यह गम्भीर दायित्व इसलिये डाला गया क्योंकि हमें बंदरों पर भरोसा नहीं था। दीमकों ने वह सब कुछ चाट डाला, जो एक सभ्य और संवेदनशील समाज की पहचान कराते हैं। और इस मामले में हमारा समाज हजारों सालों से न तो सभ्य है और न संवेदनशील। जरा नजरें दौड़ाएं तो यह सच्चाई सामने आ जाएगी, कि दो हजार साल पुराने खंडहरों पर शौचालय बना हुआ है, नहीं भी बना हुआ है तो जैसे ही मसाने कसमसाए, वह स्थान गीला हो जाता है। हमारा दिव्य समाज किसी भी और कैसे भी पत्थर कोे पूजने और कहीं भी और किसी भी मुहूर्त में पेट साफ करने के लिये दुनिया भर में मशहूर है। बहरहाल, राजेन्द्र बाबू की जन्मस्थली, कर्मस्थली या समाधि स्थल वर्तमान या भावी पीढ़ी के किसी काम के नहीं थे, उन्हें मिला भारत रत्न का प्रमाणपμा एक कागज के टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं था, उनकी गांधी जी के साथ ंिखची तस्वीर कौन सी प्रेरणा प्रदान कर रही थी, सो दीमकों ने न हमें शर्मसार होने दिया, न हमारी सरकारों को। हमारे नेता इन सब बातों में वैसे भी कोई विश्वास नहीं रखते इसलिये वे दीमकों का अहसान मानने से रहे। गांधी जी थोड़े देवता टाइप बना दिये गए थे, इसलिये राजघाट अभी बचा हुआ है। (वैसे सच मानिये कि नेता-बिल्डर का पविμा गठजोड़ राजघाट को चांद-तारा मार्केट कॉम्प्लेक्स बनाने को तैयार बैठा है।) किसी विदेशी को वहां ला कर उसके जूते उतरवाने से मन को थोड़ा सुख तो मिलता ही है। जयशंकर प्रसाद शैक्सपीयर के देश में तो जन्मे नहीं थे, मरणोपरांत उनको अपनी इस गल्ती की सजा मिल गयी। प्रेमचंद भी कई जन्मों तक अपने किये की सजा भुगतते रहेंगे- भौतिक रूप में भी और अपने लेखक होने का भी। एक नाशुक्रा समाज कैसा होता है इसके लिये हम एक से दस तक किसी भी स्थान के हकदार हैं। बल्कि दसों हमारी जेब में हैं। राम और कृष्ण बहुत किस्मत वाले थे कि समय रहते रूहानी बन गए तो आज गली-गली में राह चलते पूजे जा रहे हैं, अगर मामला थोड़ा सा भी ऐतिहासिकता से जुड़ा होता तो कहां के राम और कैसे कृष्ण! खैर, राजेन्द्र बाबू अमर रहें ये वाक्य हम साल में एक-दो बार जरूर उच्चारित करते हैं, इससे ज्यादा का भाव भी नहीं है उनके शेयरों का, लेकिन उस आसमा खातून का क्या होगा, जिसके शरीर को ही खंडहर बना कर छोड़ दिया गया। गंगा से लेकर वैष्णोंदेवी को चौबीसों घंट पूजने वाला यह देश औरत के प्रति कितना क्रूर है इसके लिये गली-गली में यहां-वहां उगे मंदिरों की तरह ही मोहल्ले-मोहल्ले में आंखें गंवाए, चेहरा जलाए, इज्जत गंवाए आसमा खातूनों की भरमार है। पहले लाठी-डंडों से काम चल जाता था, लेकिन इन चीजों से पाश्विकता का रंग नहीं चढ़ पाता, सो वो कमी एक लीटर तेजाब ने दूर कर दी। इस तरल पदार्थ से पचास-साठ साल तो निकल ही जाएंगे, बाद की बाद में देखी जाएगी।

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