बुधवार, 8 दिसंबर 2010

संभल के सोनिया, उनका गांधी जाग पड़ा है

राजीव मित्तल
बॅब, देश के लिये एक बड़ी बुरी खबर है। सुषमा स्वराज ने कहा है कि अगर सोनिया प्रधानमंμाी बनी तो वह अपने पति के साथ राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर सिर्फ रोटी बेलेंगी। सोनिया के प्रधानमंμाी बनने से उसे क्या परेशानी हो रही है चैनली? बॅाब, स्वराज दम्पति, मुख्तार अब्बास नकवी और प्रमोद महाजन तीनों हिन्दुत्व के मारे कुछ उसी तरह शर्मसार हैं जैसे 18वीं शताब्दी में पुणे का ब्राहमण समाज हुआ था। क्यों, तब भी सोनिया का ही कोई मामला था क्या? नहीं, पर उस जैसा ही। तब बाजीराव पेशवा एक मलेच्छ के साथ घर बसाना चाहते थे, जो पुरोधाओं को मंजूर न था। अपने समाज की क्रूरता से बाजीराव इस कदर आहत हुए कि बीमार पड़ गये और बीमारी में ही दम तोड़ दिया। मैं तुम्हें यह इसलिये बता रही हूं कि उस समय बाजीराव मराठाओं के लिये ही नहीं पूरे भारतवर्ष के लिये कि बेहद जरूरी थे। उनके मरते ही अंग्रेजों ने चारों तरफ हाथ-पांव मारने शुरू कर दिये थे। यही हरकत नाना फड़नवीस ने की थी, जिन्होंने मलेच्छ हैदरअली के बजाये अंग्रेजों को सगा समझा। रुक चैनली, जिसका हम आज भी गुणगान करते हैं वो कनिष्क भारतीय मूल का तो नहीं था न? नहीं, उसका सम्बंध कुषाण वंश से था, जो चीन की ही कोई उपजाति थी। और मदर टेरेसा? वो युगोस्लाव थीं। और एनी बेसेंट, जिनका तिलक बेहद सम्मान करते थे और जो कांग्रेस की अध्यक्ष भी रही थीं? वो आयरिश थीं। और सिस्टर निवेदिता, जिन्हें सन्यासी अरबिन्दो ने अपने सबसे करीब पाया और बाद में उन्हें पांडेचेरी आश्रम का कर्ताधर्ता बना दिया? वो फ्रांसीसी थीं। तो इन बेवकूफों को सोनिया में इतालवी रक्त ही क्यों ठाठे मारता नजर आ रहा है? क्योंकि अब इन सबको गांधी जी याद आ रहे हैं और यह भी याद आ रहा है कि उन्होंने विदेशियों को बाहर निकालने के लिये आंदोलन चलाया था। अरे तो उनकी आत्मकथा पढ़ कर जी बहलायें, चर्खा कातें, किसी कोढ़ी के शरीर पे तेल की मालिश करें। ये कीमती वस्μा उतार कर बोरे से तन ढापें। खैर वो सब छोड़ो, राज्यसभा कैसे चलेगी बगैर सुषमा के? अरे जितनी जल्दी छोड़े उतना अच्छा है, तुम्हारे चैनलों को बड़ी पसंद है उसकी मुस्कान और तोते की सी बोली। लेकिन बॉब, सोनिया का सत्ता में आना राष्ट्रीय स्वाभिमान, और अलमारी में सजा वो 10 हजार साल पुराना देश का गौरव इत्यादि की मिट्टी कर देगा। चैनली, विदेशमंμाी की हैसियत से जब जसवंत सिंह अपनी गोद में बैठा कर चाकलेट खिलाते हुएखूँखार आतंकवादियों को उनके माई-बाप को सौंपने जा रहे थे तब क्या देश का गौरव छतरी ताने साथ-साथ चल रहा था? जब नेशनल डीफेंस एकेडमी से एक दिन पहले प्रशिक्षण पाकर निकले नौजवान अफसर कारगिल युद्ध में झोंक दिये गये तो उनके लोथड़े क्या स्वाभिमान का समां बांध रहे थे? कुछ नहीं चैनली, यह जमावड़ा जनता को एक बार फिर बेवकूफ बनाने से चूक गया इसलिये जिसके जो मन में आये बक रहा है। इनके पोषित एग्जिट पोल धरे के धरे रह गये। मतदाता इनके ठस्सपन से आजिज आ चुका था। इनके फीलगुडों, इनके शाइनिंग भारत, इनकी उदय याμााओं को मतदाता ने अपना उपहास समझा। फिर दद्दू ने तो और भी चालबाजी दिखायी। मुलायम सिंह को अपना दसियों साल पहले किसी मेले में खोया भतीजा मान लिया। स्क्रिप्ट ढंग से नहीं लिखी गयी वरना एक बार फिर चल जाती। और फिर धूल में सने नमी खाये बोफर्स के कागजों को दियासलाई दिखा फूंक मार-मार कर धुआं उटाने की कोशिश करने लगे। हां बॉब, अब बैठे-बैठे बुदबुदा रहे हैं कि कम्बख्तों से कुछ दिन मुंह सीके नहीं बैठा जाता।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें