राजीव मित्तल
भारतीय क्रिकेट का इस मुस्कुराते मुकाम पर पहुंचना गर्व से सीना तानने की बात है, पर तन नहीं रहा। कह सकते हैं -भिड़ु बड़ा गावदी है यह सीना, जो समय के साथ नहीं धड़क रहा। अब सीने का तनना-पिचकना बाद में, अखबारों में छपे उन फोटुओं का क्या करें, जो दिल्ली के मैदान से बाकयदा लतियाये जाने के बाद धकाधक खिंचवाए जा रहे हैं, जैसे कह रहे हों, ही-ही-ही दिस इज इंडिया-जब सोलह बार मैदान मारने वाला पृथ्वीराज सμाहवीं बार यहां से किसी ऊंट या खच्चर पर लाद कर अफगानिस्तान पार्सल किया जा सकता है और तो भी सदियों से राष्ट्रीय हीरो बना रह सकता है तो पिछले साल की ही तो बात है हमें आस्ट्रेलिया और पाकिस्तान से तुरही बजा कर लौटे हुए।
उसके बाद होना था वही जो राम रचि राखा। हम जहां-जहां खेले वहां-वहां हारे, एकाध जीते ताकि फूल बरसाने वाले हाथ लाठियां लेकर घर न पहुंच जाएं। पर इससे क्या, हमारे बाजार भाव में कोई फर्क पड़ा! वे क्रिकेट खेलते हैं राष्ट्र के लिये, पर कमाते अपने लिये हैं। अब खेलने और कमाने के बीच की मुंडेर इतनी पतली है कि लांघने की भी जरूरत नहीं। सब कुछ खेल-खेल में हो रहा है खेलना भी और कमाना भी। और फिर उस कुबेर बीसीसीआई को क्यों भूल जाते हैं, जिसे उस बाजार ने मालामाल किया हुआ है, जो हमें रैम्प पर उतार कर चलना सिखा रहा है, मुस्कुराना सिखा रहा है, बल्ला पकड़ना सिखा रहा है। और अब तो क्या खाना-क्या खिलाना, क्या पीना-क्या पिलाना, क्या पहनना-क्या उतारना, क्या ओढ़ना-क्या बिछाना-घोड़े की नाल से लेकर कार के टायर तक हमारे इसी मुस्कुराते चेहरे की बदौलत बिक रहे हैं।
अब इस धौनी को ही देख लो-ऐतिहासिक रश्क का मसला बन चला है। किसी दिन बरसती फुहार में रांची के किसी पेड़ के नीचे सिर छुपाने को खड़ा हो जाए तो शाख-शाख आंदोलन करने लगेगी-धौनी, प्लीज हमें पकड़ कर लटको, हमें हिलाओ। और बाजार हर उसकी आरती उतार रहा है जैसे वह बाजीराव प्रथम हो, वह कब बाजीराव द्वितीय हो जाएगा इसकी बाजार को परवाह नहीं। उसे बस बाजीराव चाहिये। भले ही वह बिठूर में सड़ रहा हो। कैसा भी बाजीराव हो, उसे वह रैम्प पर चलता ही भाता है, जिसके गल-बगल मुस्कुराती हुई ललनाएं ठुमकती हैं और वह बीत गए कल और आने वाले कल को भूल रम जाता है उस आज में, जो सितारों भरा है।
वह वीनू मनकद की तरह बेवकूफ नहीं है, जिन्होंने पूरा का पूरा लाड्र्स टेस्ट मैच अपने नाम कर लिया था पांचों दिन मैदान में रह कर। लेकिन इसे मालूम है कि अगर पांचों दिन मैदान में विचरता रहा तो बाजार रैम्प से उतार देगा और घर वापस जाने के लिये टैक्सी करनी पड़ेगी, जिसका किराया देना पड़ता है। वह मैदान और रैम्प को एकसाथ साधना चाहता है ताकि दो नावों पर पैर...जैसी गावदी किस्म की कहावत का नामोनिशां न रहे। खैर, अब छह महीने पड़े हैं सान पर चढ़ने के, तब तक बाजार में छा जाने का यही मौका है। लेकिन एक बहुत जरूरी बात-आप ऐसे तो दिखते हैं न कि आपको देख कर झुंड का झुंड किलकारी मारने लगे! बल्ले और गेंद की परवाह न करें।
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