रविवार, 26 दिसंबर 2010

मिस्र के पिरामिड और बिहार की सड़कें

राजीव मित्तल
बिहार के लोगों को हाल के अपहरणकांड ने खुशी का एक ऐसा मौका दिया है, जो बार-बार नहीं आता। और उसी क्षण जब दैवीय कृपा भी प्रकट हुई हो तो क्या कहने। हुआ यूं है कि स्विटजरलैंड का एक खुराफाती दुनिया के सात अजूबों की करीब सवा दो हजार साल पुरानी लिस्ट नकार कर अपनी नयी लिस्ट बनाने की तैयारी में जुटा है। और इसके लिए वो दुनिया भर की राय मांग रहा है। अब तक उसे एक करोड़ सत्तर लाख लोगों के जवाब मिले हैं। इन जवाबों से पता चलता है कि दुनिया के सात अजूबों की नयी लिस्ट में अपना ताजमहल तो किसी तरह ठुंस गया है, पर मिसþ का पिरामिड गायब है। उसे तो लोगों ने सात तो क्या 31 अजूबों की सूची के काबिल भी नहीं समझा। यही है वो ईश्वरीय चमत्कार, जिसका फायदा बिहार उठा सकता है। अगर थोड़ी कोशिश की जाए तो बिहार की सड़कें अजूबों की इस लिस्ट में शामिल हो सकती हैं और वह गौरवशाली समय एक बार फिर लौट सकता है, जो गुप्त वंश के खात्मे के बाद से लापता है। उस गौरवशाली समय की पुनप्र्राप्ति के लिए शर्त एक ही है कि बिहार की सड़कें जस की तस रहने दी जाएं। वह दुनिया का अजूबा बनने के कगार पर हैं लेकिन अलकतरा उनके लिए जहर है और सुरंगनुमा गड्ढे भरने का काम महापाप। उन सबको साधुवाद, जो ऐसे किसी भी काम में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अड़ंगा लगाने में कमर कस कर जुटे हैं। यही सड़कें बिहार के इतिहास, वर्तमान और भविष्य की शान हैं। शेरशाह सूरी ने साढ़े चार सौ साल पहले पता नहीं किस गफलत में पेशावर से ढाका तक एक सड़क बनवा दी थी, वह और जगह किस हाल में है, यह तो पता नहीं, पर खुशी इस बात की है कि बिहार में वह बिल्कुल अपने मौलिक अंदाज में है। हमें इस राज्य के कर्णधारों से उसी अंदाज की अपेक्षा है। वे यह काम ठेकेदारों, माफियाओं और रंगदारों पर क्यों छोड़ना चाहते हैं? क्यों दुनिया भर की एजेंसियों को सड़क बनाने का न्योता दे रहे हैं? उन्हें गौरवशाली अतीत की वापसी चाहिये या चमचमाती सड़कें! वैसे भी सड़कें तो बनने से रहीं, तो खामखां सिर क्यों खपाया जाए। अब देखिये न, कितनी परेशानी उठानी पड़ी उन रंगदार टुन्ना, मुन्ना, चुन्ना को, आप सबको और जीएम व इंजीनियर साहब को। नतीजा क्या निकला-खाया पिया कुछ नहीं चार गिलास ऊपर से तोड़ दिये। मुक्त हुए इंजीनियर मंडल जी से तो अब टुन्ना-मुन्ना-चुन्ना के यहां खाये-पिये का भी हिसाब मांगा जा रहा है बिल्कुल उसी कलही सास की तरह, जो रोज सुबह-शाम बहु को सुनाती है कि कमबख्त तिनका नहीं तोड़ती और खावे मन भर है। न जाने कितने जेल में डाल दिये गए, कितनों की रातें बरबाद हुईं कितनों की सुबहें। भूसे के इस ढेर में गेहूं का दाना निकली बिहार की पुलिस, जो पंद्रह दिन और पंद्रह रातें बगैर खाये-पिये नेपाल, गोरखपुर, पटना, नरकटियागंज, और पता नहीं कौन-कौन से गांव, जंगल, नदी-नाले एक किये रही। कभी घोड़े पर, तो कभी रिक्शे पर, कभी टुटही जीप पर, कभी मालगाड़ी तो कभी सवारी गाड़ी, तो कभी बैलगाड़ी पर-सब की सवारी गांठी। अब ऊपर से माफिया वालों का यह इल्जाम कि मंडल जी तो हमारा भंडार खाली कर गए और तुम हमारे लोगों को तिलचट्टा पड़ी सब्जी खिला रहे हो। हमने उन्हें मच्छरदानी में सुलाया, तुम मच्छरों के हवाले कर दिये हो। वो हमारे यहां खाट पर रहे, तुम हमारे वालों को जमीन पर सुला रहे हो। यह सब आगे न हो इसलिए पिरामिडों के ढहते ही सब जुट जाएं क्योंकि बिहार की सड़कें भारत की ही नहीं पूरे विश्व की धरोहर हैं, उन पर कोई बुरा साया न पड़े।

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