रविवार, 26 दिसंबर 2010

थर्रा देने वाले सच

राजीव मित्तल
भारत का सरकारी स्वास्थ्य इस कदर गिर गया है कि नीचे झांको तो म्यांमार और सूडान जैसे देश ही नजर आते हैं और बांग्लादेश और पाकिस्तान ऊपर से उसे अंगूठा दिखा रहे होते हैं। इसी तरह देश की बुनियाद मजबूत करने का एक और पायदान बेसिक शिक्षा का भी करीब-करीब यही हाल है। तमिलनाडु के कुंभकोेणम इलाके की एक पाठशाला में आग से 94 बच्चों का जल मरना देश के किसी भी स्तर के विकास या आगे कभी चमकने वाली विकासदरों पर एक भरपूर तमाचा है। क्योंकि यह कोई आसमान में दो विमानों के टकराने का मामला नहीं है। यह सीधे-सीधे हमारी केन्द्र और राज्य सरकारों की बच्चों के विकास के प्रति जघन्य सोच का नतीजा है। जघन्य इसलिये कि एक ऐसी इमारत में चार-चार स्कूल चलते थे, जिनके साढ़े आठ सौ बच्चे छोटे-छोटे छप्पर की छत वाले अंधेरे कमरों में ठुंसे रहने की बेबसी झेलने को अभिशप्त थे। सीढ़ियां इतनी संकरी थीं कि एक बार में एक ही चढ़ सकता था। गेट की भी वही हालत थी, जिसमें निकल न पाने की ही वजह से ही इतने ज्यादा बच्चे जल मरे। मुख्यमंμाी जयललिता को ऐसे स्कूलों के बारे में रिपोर्ट काफी दिन पहले भेज दी गयी थी, जो किसी अलमारी की शोभा बनी पड़ी होगी। यह हाल दूर-दराज बसे कुंभकोणम का ही नहीं देश भर में फैले सरकारी विद्यालयों का है। देश की राजधानी दिल्ली में बच्चे चमड़ी जला देने वाली गर्मी और खून जमा देने वाली सर्दी में टेंटों में पढ़ रहे हैं। तो बिहार और उत्तरप्रदेश में सरकारी विद्यालय की हर दूसरी इमारत ढहने को तैयार बैठी है। सिर को टूटने से बचाने के लिये मास्टर जी बच्चों को जाड़ा, बरसात या तपती धूप में पेड़ के नीचे पढ़ाते दिख जाएंगे। या वो इमारत किसी दबंग के पारिवारिक समारोह के काम आ रही होगी, तो स्कूल आए बच्चे घर लौट जाएंगे, या मास्टर जी किसी स्थानीय या राष्ट्रीय चुनाव कराने से लेकर जनसंख्या या पोलियो अभियान में लगे होंगे। अब एक निगाह फिर स्वास्थ्य पर। इस मामले में 175 देशों में 171 वां नम्बर लाने वाला हमारा भारतवर्ष स्वास्थ्य पर अपनी कुल आय का केवल 0.9 फासदी खर्च करता है, जो एक व्यक्ति पर एक पैसा भी नहीं बैठेगा। लेकिन हां, डाक्टरों और नर्सिंग होमों और अपोलो जैसे प्राइवेट अस्पतालों के चलते प्राइवेट स्वास्थ्य सेवा में यह देश 18वें नम्बर पर है, जिनमें मरीज अगर एक लाख से कम खर्च कर बाहर आ गया तो स्टाफ शर्मसार हो जाता है। यानी सरकारी और प्राइवेट स्वास्थ्य सेवाओं में 153 देशों का फासला! यही हाल निजी स्कूलों का है, जहां पांच हजार रुपये फीस दीजिये तो आपका बच्चा पांच सितारा होटल का मजा लेते हुए अपने कैरियर की सोचेगा। यानी पैसा फैंकों और मजा लूटो। ठहरिये, अब एक सच और जान लीजिये कि रेलवे अपने खाते के एक रुपये में केवल एक नया पैसा ट्रेनें दौड़ानें यानी विकास पर खर्च करता है, जिसे लेने से भिखमंगे 30 साल पहले ही मना कर चुके हैं। तो जिन पटरियों पर आपकी ट्रेन दौड़ रही है वो किस हाल में है यह सोच कर कांपने मत लगियेगा।

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