मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

बिहार के विकास में रंगदारी का महत्व

राजीव मित्तल
पिंटू, संटू, मंटू, शंभू, मुन्ना, चुन्ना, टिल्लू, फुल्लू आदि-आदि। ये नाम जब मां-बाप के मुंह से निकलते हैं तो लगता है ममता का सागर लहरा रहा है। लेकिन जब इनमें से कोई भी नाम वाला यह कहने लगे कि उनकी जेबें फूलते जाना उतना ही जरूरी है जितना जरूरी है बिहार के लिये रपटीली सड़कें, मजबूत पाये वाले पुल, दो-तीन किलोमीटर तक बिना कटे बिजली के तार, राज्य में उद्योग-धंधों की भरमार वगैरह-वगैरह। लेकिन दिक्कत यह है कि ऐसा कोई सिद्धांत अब तक सामने नहीं आ पाया है, जो बिहार का विकास और जेबों का फूलना दोनों को समानान्तर गति से आगे बढ़ाने का रास्ता दिखा सके। तो निष्कर्ष यही निकला मान लेते हैं कि बिहार के विकास की बात होती रहनी चाहिये क्योंकि यही लोकतंμा का वोट खींचू धर्म है। इससे ज्यादा कुछ नहीं। क्योंकि ऐसी कोई भी बात जब ठोस शक्ल लेना शुरू करती है तो संटू-मंटू के हाथ खुजलाने लगते हैं कि अरे बिहार का विकास वाकई होने जा रहा है। वह भी बगैर हमारी मर्जी के, हमें बगैर चढ़ावा चढ़ाए। नतीजतन राज्य की सड़कों का लुगदी वाला रूप ही मन को मोहता है। नदी-नालों की फफूंद ही आँखों को भली लगती है, राज्य की दरिद्रता और बदहाली ही खुशनुमा बयार लगती है, राज्य की जहालत लुभावनी लगती है और एक पांव पर खड़े पुल-पुलिया सतयुग की संतई का आभास देते हैं।
पिंटू से लेकर फुल्लू ने अपनी जेब भरने की योजना को बड़ा रंगीला नाम दिया है- रंगदारी। रंगदारी एक तरह का कमीशन है, जो विकास के नाम पर एक ईंट लगाते हुए भी मांग लिया जाता है। विकास को खेला मान उसमें शामिल होने की जिद भी रंगदारी में आता है। इसमें कोई भी हिस्ट्रीशीटर सड़क या ऐसे किसी भी काम का ठेका खुद ले कर विकास में अपना महती योगदान देता है। मसलन अगर 10 करोड़ की सड़क बननी है तो उसके बनाने पर खर्च किया जाता है पचास लाख से पांच करोड़ तक, बाकी का क्या होता है-यह कोई पाइथागोरस की थ्योरम नहीं है, जिसे हल करने को दिमाग का इस्तेमाल किया जाए। जब रंगदारी करनी है तो मैदान में भी उतरना है सीना तान कर। उसके लिये हथियार चाहिये, जो किसी भी सरकारी अद्र्ध सैन्य बल या पुलिस बल के शस्μाागारों से हासिल हो जाते हैं। चूंकि रंगदारी अपने आप में इकलौता किरदार नहीं है, यह बहुपक्षीय और बहुरंगीय है। कई सारे किरदारों का मेल है, जो विकास को छोड़ बाकी अन्य कामों के लिये काफी मुफीद है।
बहरहाल, कुछ ही दिन पहले परम्परा का सम्मान करते हुए किसी पिन्टू ने एक पगडंडी को सड़क का रूप लेता देख कंस्ट्रक्शन कम्पनी के सामने फौरन झोली फैला दी कि विकास के नाम पर एक करोड़ दे दे बाबा। कम्पनी फोरन बोरिया-बिस्तरा बांध भाग खड़ी हुई और उस रस्ते पर कोई भी बस या कार तीन टांग पर बरसों पुरानी धुन गुनगुनाते जा रहे है-जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-शाम।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें