सोमवार, 20 दिसंबर 2010

बास मारती बेसिक शिक्षा की गाद

राजीव मित्तल
गम निष्पादन बार। दिल और दिमाग की किसी भी खोह में फंसी तकलीफ को अंखियों के झरोखों से बाहर निकालने का उत्तम प्रबंध। बाहर यह बोर्ड और अंदर हॅाल में आंसू निकालने के लिये तश्तरियों में लाल मिर्च की बुकनी से लेकर ‘लो आ गयी उनकी याद वो नहीं आये’ टाइप के करीने से लगे कैसेट। आंखों में हाहाकार मचाने कोे छोटी-छोटी शीशियों में प्याज का रस भी। वातापि और इल्वल के इस इंतजाम की सम्मेलन में आए सभी प्रतिभागियों ने जी भर कर सराहना की।
इस सम्मेलन में उन महिलाओं को खास तौर पर बुलाया गया है, जिनका हाल विधवाओं से भी बदतर है। विधवा नहीं हंै, इसलिये वृंदावन भी नहीं जा सकतीं, ऐसी कई महिलाएं वहां आ जमी हैं। माहौल पर महाभारत युद्ध के बाद का सा विषाद छाया है, जो मौके की नजाकत को देखते हुए जरूरी भी है। दो-तीन पुरुष भी नजर आ रहे हैं, जिन्हें विशेष परमिशन लेनी पड़ी। वातापि ने इल्वल को कार्यक्रम शुरू करने का इशारा किया। ‘बहनों और भाइयों, आप सब जो μाासदी झेल रहे हैं उससे हम अच्छी तरह वाकिफ हैं। आज के दिन आप सबको अपनी दुखगाथा रो-रो कर सुनाने का एक सुनहरा मौका मिला है, जिसे हाथ से न जाने दें। तो शुरुआत करें हम बेसिक शिक्षा देवी से।
आइये सुश्री बेसिक जी। अपना नाम पुकारा जाता देख देवी जी बुक्का फाड़ कर रो पड़ीं। न प्याज का रस, न मिर्च की बुकनी- इस प्राकृतिक रूदन पर सब ने वाह-वाह करते हुए तालियां बजायीं। ‘मैं क्या बोलूं- आजाद भारत में मेरी हालत होमगार्ड के जवान से भी ज्यादा बदतर हो गयी है। स्कूल बारातघर और कूड़ाघर में तब्दील हो गये हैं। 20-25 साल पहले जिन स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चे झूमते-झामते तख्ती और दवात लेकर आते थे। जमीन पर बिछी चटाई पर आलथी-पालथी लगा कर पहाड़े रटा करते थे, अ आ इ ई सीखते थे, इंटरवल में मैदान में उधम मचाया करते थे। मैं खुशी में बौराई यहां से वहां डोलती फिरती थी, आज उन मैदानों पर सुअर घूमते हैं, उन कक्षाओं में गंजेड़ी दम लगाते हैं, बच्चे पढ़ने आते भी हैं तो मास्टर साहब चुनाव में ड्यूटी दे रहे होते हैं या परिवार नियोजन के गुब्बारे बेच रहे होते हैं। कई बार तो बच्चे इसलिये लौट जाते हैं क्योंकि स्कूल में किसी दबंग पड़ौसी के बेटे की सगाई का जश्न मन रहा होता है। या किसी ने वहां गाय-भैंस बांध रखी होती है। ज्यादातर स्कूल एक कमरे के रह गये हैं, जहां पहली कक्षा से लेकर आठवीं की पढ़ाई एक साथ हो रही है। दो सौ बच्चों पर एक मास्टर है। स्कूल में पीने को पानी नहीं है। बच्चे प्यास से तड़पते रहते हैं।
गर्मी हो या बरसात या जाड़ा, ज्यादातर स्कूलों में पढ़ाई खुले में होती है क्योंकि स्कूल की छत अब टपकी तब टपकी। मास्टरों की लम्पटई टाइप भर्ती का नतीजा है कि आज चने के खेत में कांग्रेस घास लहरा रही है। अखबार में विज्ञापन निकलते ही उस नेता या अफसर की ढुंढाई शुरू हो जाती है, जिसके हाथ में 50 हजार की गड्ड़ी थमा साठ साल की उम्र तक सरकार की दामादी आराम से भोगी जा सके। बोलते-बोलते शिक्षा देवी जोश में आ गयीं, उनका रोना बंद हो चुका था, जो नियम के विपरीत था, तभी वापाति ने वो कैसेट लगा दिया ‘वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी’। यह सुनते ही बेसिक शिक्षा देवी खंबे से टेक लगा कर दहाड़ें मारने लगीं। कमरा उनकी सिसकियों से भर उठा। एकाध ने ताली बजानी चाही तोे इल्वल ने इशारे से मना किया-अभी नहीं चुप होने के बाद।

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