रविवार, 26 दिसंबर 2010

हर मोरपंखी की गोपिका बनना!

राजीव मित्तल
श्रीकृष्ण अपनी घुमंतु प्रवृति के चलते कई बार मुसीबत में फंस जाते थे। संदीपन आश्रम में अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी कर उद्धव के साथ निकल लिये कच्छ की ओर और किसी कुचक्र में फंस पाताल पहुंच गए। वहां का हाल देख चकराए क्योंकि पाताल का राजा श्रृंगालव्य अपने को असली कृष्ण बताता था और उन्हीं की नकल करता था-मसलन मोरपंख लगाना, हाथ में मुरली, चक्र भी धारण कर रखा था। श्रंृगालव्य के स्वंय के कृष्ण कहलाने के उन्माद को उसकी बहन शैव्या बढ़-चढ़ कर सहारा दे रही थी। श्रंृगाल का पागलपन उसकी जनता को हैरान किये हुए था। इस नाम पर उसके अत्याचार भी बढ़ते जा रहे थे। कृष्ण ने जब वहां का यह हाल देखा तो पहले तो श्रंृगालव्य और गोपिका बनी उसकी बहन को काफी समझाया, पर नासमझ, ऊपर से अहंकारी श्रंृगाल ने कृष्ण को कैद में डाल दिया। फिर कृष्ण ने कैसे उसको मारा और पाताल की जनता को उसके अत्याचार से मुक्त कराया और शैव्या के भ्रम कैसे दूर किये इन सब के विस्तार में जाये बगैर यहां यह बताना जरूरी है कि इस कथा को सुनाया ही क्यों जा रहा है। वह इसलिये साहेबान की बिहार की जनता और श्रंृगालव्य की बहन शैव्या की तासीर में कोई फर्क नहीं। अब देखिये न, बिहार के ग्यारह विधानसभा क्षेμाों की जनता अपने तारणहारों की राह तक रही है, और वे तारणहार स्वर्गलोक से नहीं आने, उन्हें जेल के दरवाजे खुलने का इंतजार है। हाल के विधानसभा चुनावों में जो विधायक चुने गये, उनमें नौ जेल में बंद हैं और दो फरार हैं। और इन सभी सज्जनों ने जेल में रहते या फरारी के दौरान ही चुनाव लड़ा और मूछों पर ताव देते हुए चुनाव जीता। शैव्या का सा आचरण कर रही इन विधानसभा क्षेμाों की जनता को कौन समझाए कि भैय्ये, आपने जिन्हें जितवाया तो वे क्या किसी जनांदोलन में जेल गए थे, आपकी कौन सी समस्या उठायी थी उन्होंने या कौन सी दूर की? कैसा भी कोई सुख दिया उन्होंने? वे जेल तो चोरी-चमारी या लूटपाट या हत्या या अपहरण के आरोपों में ही गये थे, तो उन्हें वोट किस खुशी में दिये-सिर्फ इसलिये कि जेल में बंद नेता जी उस क्षेμा की उस जाति के थे, जिसका वहां ज्यादा असर है। अब देखिये बारसोई के नवनिर्वाचित विधायक महबूब आलम 15 साल से भागे फिर रहे हैं, लेकिन नो प्रॉब्लम-तीन बार से लगातार जीत रहे हैं। उस क्षेμा की जनता ने उन्हें क्यों वोट दिया, वह एक फर्जी कृष्ण की गोपिका क्यों बनी हुई है-है कोई पूछने वाला। चाहे जेल में बंद हो या फरार हो-सब पर दर्जनों मुकदमे चल रहे हैं तो किस आशा में इन्हें जिताया जाता है यह समाजशास्μिायों और मनोविज्ञानियों के शोध का बढ़िया विषय नहीं है? या फिर ये कारा विधायक जेल से बाहर रहते हारे प्रत्याशियों से ज्यादा सज्जन हैं? तब तो कुछ नहीं कहना है क्योंकि जेल की दावारें फूस की हो चली हैं।

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