बुधवार, 8 दिसंबर 2010

बूढ़ी काकी की दर्दनाक मौत

राजीव मित्तल
प्रेमचंद की कहानी में सारी जमीन-जायदाद हड़प कर जाने वाले भतीजे के यहां दावत वाले दिन देर रात भूख से बेहाल बूढ़ी काकी को रेंग-रेंग कर झूठे पत्तल चाटता देख भतीजा बहू के मन में इस कदर संताप हुआ कि आंखों से बहते आंसुओं के साथ वह तुरंत पकवानों की थाली सजा कर लायी और अपने सामने बैठ कर काकी को खिलाया। भतीजे को भी दुख हुआ। लेकिन काकी से कई गुना उम्रदराज खटिया पर सैंकड़ों बरसों से पड़ी बाबरी मसजिद का ध्वंस करने में किसी तरह की दया नहीं दिखायी गयी।

कानपुर से रात को चल कर छह दिसम्बर 1992 की सुबह जब अयोध्या पहुंचे तो औंघायी सी पड़ी थीं कस्बे की सड़कें-गलियां। कुछ बड़ा घटने का दूर-दूर तक आभास नहीं था। जीप को सड़क के किनारे लगा कर जहां कारसेवा होनी थी, वहां तक पहुंचने के लिये कई टीले फलांदने पड़े। कारसेवा स्थल पर देश-विदेश के पत्रकार और फोटोग्राफरों का जमावड़ा मौजूद था। धूप खिलते ही हलचल बढ़ने लगी। मंच पर संघ परिवार के कई बड़े नेता-लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार और साधवी ऋतम्भरा वगैरह मौजूद थे। साध्वी का जोशीला प्रवचन चल रहा था। कारसेवकों की एक के बाद एक खेप स्थल पर पहुंच रही थी।

कुछ देर बाद पुलिस वाले उन्हें दूसरे रास्ते से निकाल देते। बाबरी की छत पर सीमा सुरक्षा बल के रायफलधारी जवानों की सुरक्षा में मजिस्ट्रेट कार्यस्थल की निगरानी कर रहे थे। 10 बजते-बजते भाषण आग उगलने लगे और माहौल तेजी से गरमाने लगा। तब तक कारसेवकों का एक बड़ा जत्था हाथों में हथौड़े, छड़ें, बेलचे और तोड़-फोड़ में काम आने वाला कैसा भी औजार लिये वहां आ धमका। कुछ देर पुलिस से उनकी धींगामुश्ती चली, लेकिन जुनून सारे वातावरण पर छाता जा रहा था। आडवाणी ने एकाध बार मीठे अंदाज में शांत रहने की अपील की, लेकिन सब बेकार। सारी व्यवस्था चरमारा गयी और कारसेवक मसजिद की दीवारों, खम्भों और गुम्बदों पर रेंग-रेंग कर चढ़ गये और उन्हें तोड़ने लगे। पल भर में मजिस्ट्रेट और उनके साथ सौ से ऊपर सीमा सुरक्षा बल के जवान वहां से भाग लिये।

अब सब कुछ कारसेवकों के हाथ में था। पत्रकार बिरादरी भी डर कर भाग खड़ी हुई। मंच पर खुशी के नारे लगाये जाने लगे। उमा भारती और साध्वी जोशी जी के गले लिपट गयीं। मंच से कहा जाने लगा-हजार साल की गुलामी की जंजीरें आज तोड़ दी गयीं। आडवाणी जी बोले-अब आप सब प्रसाद खा कर जाएं। उधर तोड़ -फोड़ का उन्माद जारी था। ऐसे में अपने को बिल्कुल अकेला पाकर घबराहट होने लगी। यहां-वहां भटकने के बाद धूल-धक्कड़ में बड़ी मुश्किल से एक चेहरा पहचाना सा लगा। वो थे दिलीप शुक्ला। सैंकड़ों पत्रकार कारसेवा स्थल के नजदीक बने एक भवन की छत से नजारा देख रहे थे और नीचे ताला मार दिया गया था।

शुक्ला जी के साथ ही एक घंटे तक घूम-घूम कर मसजिद ढहते देखी। सभी कारसेवकों को पूड़ी-सब्जी के पैकेट मिले थे। भूख जोर से लगी थी। कारसेवक समझ अपने को भी एक पैकेट थमा दिया गया। दिन के 12 बज चुके थे। इस बात का पूरा अंदेशा था कि अब सेना आने वाली है, सो तुरंत जीप की तरफ भागा। रास्ता पता नहीं चल रहा था। भटकते हुए कारसेवकों के शिविर में पहुंच गया, जहां घेर लिया गया। पिछले कई दिन से वहां पत्रकार पिट रहे थे, फोटोग्राफरों के कै मरे तोड़े जा रहे थे। मार्क टुली और रघु राय को भी नहीं बख्शा गया था। मान लिया कि आज अपनी भी पिटाई तय है। कई सवालों के जवाब देकर किसी तरह उन्हें संतुष्ट किया और भागा वहां से।
जीप तक पहुंच कर जान में जान आयी। कुछ देर में अपने सभी साथी आ गये। तुरंत जीप भगायी। रास्ते में सामने से फौज की टुकड़ियां आती दिखायी दीं। जीप को खेतों में उतार कर दौड़ाया। शाम सात बजते-बजते कानपुर पहुंचे। कानपुर में हिंसा शुरू हो गयी थी। गोलियों के धमाके और जगह-जगह आगजनी। मेस्टन रोड के हालात बेहद नाजुक थे, जहां के एक लॉज में अपना डेरा था। सामान उठा कर दफ्तर के बगल के एक होटल में कमरा लिया। कर्फ्यू लग चुका था और कानपुर ही नही,ं अगले सात दिन के लिये पूरा देश बलवाइयों के हवाले था।

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