मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

हाथ खड़े करने की ईमानदारी तो दिखाइये

राजीव मित्तल
खेेला कोई भी हो, लेकिन मजा तभी आता है जब दोनों तरफ विकल्प भी भरपूर हों लेकिन बिहार में सब कुछ एकपक्षीय ही चल रहा है। चाहे सूखा हो या बाढ़, इनसेफलाइटिस हो या कालाजार, कुष्ठ हो या एड्स, शिक्षा हो या स्वास्थ्य, सड़क हो या पुलिया, रंगदारी हो या किसी जाति विशेष की सेना का किसी जाति विशेष पर कहर और अब यह नक्सली हमला, जिसने बिहार के सारे शासनिक-प्रशासनिक तंμा को सरेआम नवजात शिशु की अवस्था में पहुंचा दिया है। ये सब सालों से इसलिये सरकार को ठेंगा दिखाते आ रहे हैं कि उनके पास विकल्पों की भरमार है और इनके पास हैं वही घिसेपिटे थ्री नॉट थ्री टाइप, मकड़ी के जालों, तिलचट्टों और चूहों से भरी कोठरी में में बाबा आदम के जमाने से धरी बोरी में दीमक खाये विकल्प। इसलिये चाहे पंद्रह साल लालू प्रसाद यादव के रुतबे से भरपूर शासन रहा हो या पिछले चार महीने से राष्ट्रपति शासन, चाल वही है, हाल वही है और सोच वही है कि होने दो, ऊपर वाला जब मेढक के ब्याह से पानी बरसवा सकता है तो इन सबको भी दुरुस्त कर सकता है। इसीलिये कुछ नक्सली एक कस्बे में दिन-दहाड़े घुस आते हैं और एक घंटे तक तांडव करते हैं।
जबकि इधर सत्तातंμा, सत्ताच्युत तंμा और सत्ता के संभावित कलपुर्जों का एकमाμा सहारा है- बैठकें, भारी भरकम शब्दों में दिये गये बयान, कुछ चुहलबाजी, कुछ चहलकदमी, राज्यपाल हटाओ, मुझे मौका दो तो मैं वह कर दिखाऊंगा, वह नालायक है-हमीं लायक है जैसे वाक्यों से भरी भाषणबाजियां। हिस्ट्रीशीटर जेल भेजे जाएं जैसे शब्द सुबह नाश्ते की मेज पर रोज उछाले जाते हैं, दोपहर के खाने पर पूछा जाता है कि कुछ हुआ उनका, शाम की चाय पर हल्की सी भृकुटि तन जाती है कि क्या अभी तक कुछ नहीं हुआ उनके बारे में और रात के खाने में-अच्छा कल सुबह देखेंगे का बास मारता जुमला।
इस नक्सली हमले पर ऐसे ही जुमलेबाजी कुछ के ड्राइंगरूम में और कुछ के बोर्डरूम में सात-आठ दिन चलेगी और फिर-अट्टाहस के साथ छत फाड़ता शोख से लबालब बयान आएगा- आखिर काबू पा ही लिया न! तभी कहीं से खबर आएगी कि किसी जिले के एस पी का वाहन उड़ा दिया गया, तो फिर पेश आएगी उसकी शहादत मनाने की पारम्परिक मजबूरी। फिर किसी रेलगाड़ी के डिब्बे धमाके में उड़ेंगे, फिर किसी बस्ती पर हमला होगा-बस चार-पांच लाशें बिछ जाएंगी। नेपाल से जुड़े बिहार के किसी भी जिले की रातें कितनी खौफनाक हैं और दिन कितने दहशतजदां-यह पटना या दिल्ली की अट्टालिकाओं में बैठ कर समझ पाना उतना ही मुश्किल है जितना बिहार की सड़कों पर किसी ट्रक का रेंग भी पानाा।
बिहार की जनता ने राष्ट्रपति शासन से बड़ी उम्मीदें लगायी थीं, लेकिन उसे अब तक यही पता नहीं चला कि कठपुतलियां अपने आप हाथ-पांव नहीं चलातीं। उनकी हर जुम्बिश पर किसी की उंगली की ठुनक होती है। बिहार को एक बार सैनिक शासन के हाथों में देकर क्यों नहीं देख लिया जाता पर उसके लिये भी किसी अब्राहम लिंकन की सी इस्पाती इच्छाशक्ति और ईमानदार सोच की दरकार होगी क्योंकि अगर ऐसा न होता तो डेढ़ सौ साल पहले आज का संयुक्त राज्य अमेरिका संतरे की फांकों सा बंट चुका होता।

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