रविवार, 26 दिसंबर 2010

अब बजने लगी हुबली की ढपली

राजीव मित्तल
पिछले दिनों बेंगलौर में एक नाटक चला, फिर नौटंकी हुई और अब भड़ैंती हो रही है। नाटक खेलने का आह्वान किया था वहां की धर्मवीर सरकार ने, जिसके टिकट ही नहीं बिके। हुबली पे तिरंगा की सूμाधार सुश्री उमा भारती कुछ दिन किसी कर्नाटकी जेल में भर्ती रहीं, वहां से निकल अब राष्ट्रीय नेतृ की पदवी से नवाजी जाने वाली हैं। वो जब जेल जाने के लिये ट्रेन से रवाना हुई थीं, तभी लग गया था कि मनमोहन देसाई की तर्ज पर भारतीय जनता पार्टी को किसी मेले में खोया अपना नेता मिल गया है। खैर, भविष्य की राष्ट्र नेताणी जेल में हो और बाहर वही दिन वही रात, वही डाल वही कौवा-यह तो देश भक्तों का अपमान है, सो पार्टी के कई छोटे-बड़े नेताओं ने सप्ताह के सातों वार तय कर लिये कि सोमवार को मैं तो मंगलवार को तुम और बुधवार को वो-इस तरह रोजाना हम गिरफ्तारी देंगे ताकि तिरंगा फहराना हमारा पुश्तैनी धंधा करार दिया जाए और कैद (पता नहीं कैसी और कौन सी) में ‘मेरी जेलयाμाा’ लिख रहीं मोहतरमा को गाजेबाजे के साथ दिल्ली ले जाया जाए। सो, रोज ट्रक भर-भर कर गिरफ्तारियां हुईं। लबालब तो नहीं लेकिन कामचलाऊ रहा ये खेल। इस खेल में कई बड़े नाम शामिल हुए। आजादी की लड़ाई में जेल जाना शान माना जाता था, तब नहीं गए तो अब उस शान को हासिल करने का मौका क्यों छोड़ा जाए। फिर गांधी-सावरकर विषय पर मची तूतू-मैंमैं में अचानक याद आया कि सत्याग्रह जैसा कुछ होना चाहिये, जो होता भी, तभी मोहतरमा के लिये गेट खुला और मच गया विक्ट्री रैली का शोर। सत्याग्रह अगली बार के लिये हो गया किनारे। लेकिन कोई कुछ भी सोचे, उमा भारती बहुत खुश नहीं हैं इन सब बातों से, राष्ट्रीय नेतागिरी में कदम धरवाने के चर्चों से। यह तो बारह साल पहले ही हासिल हो जाना चाहिये था। बाबरी मस्जिद पर हथौड़ा पड़ते ही ऋतम्भरा को गोद में लेकर कौन नाचा था, जोशी को गले किसने लगाया था, माइक पर जय-जयकार किसने बुलवायी थी, किसने यह ऐलान किया था आज की इस जीत की खुशी में आप सब प्रसाद खा कर जाएं। उस निठल्ले लिब्राहम ने अगर जेल भिजवा दिया होता, तो कैसा अगली बारी अटल बिहारी, उसकी जगह होता देश का रोआं-रोआं चिंघाड़े उमा-उमा। आडवाड़ी जी ने सीना तो ताना, पर पीछे हट गए। नहीं तो ठोक कर कहना चाहिये था-हां मैंने गिरवाई वो बाबरी मस्जिद। उल्टे मुझे भी यह कर रोक लिया- न उमा न, तुमने जेल के अत्याचारों से तंग आकर अगर जुबान खोल दी तो इस बु¸ढ़ापे में खासी फजीहत हो जाएगी मेरी। वैसे ही एक घोटाला पीछे लगा है। यह वैंकेया कम नहीं, इत्ता बड़ा मुंह खोलने की क्या जरूरत थी कि यह जनता की जीत है राष्ट्रीय ताकतों की जीत है जबकि किया धरा सब मैने, हुबली की जंग जीती मैंने। ऊपर से यह और कि मध्यप्रदेश की चीफ मिनिस्ट्री फिलहाल उसी गौर के पास, बाद में विचार किया जाएगा। चुप तो रहा ही नहीं जाता कमबख्त से। इत्ते साल कीर्तन करवाया, अब राष्ट्रीय नेता बन कर क्या मिल जाएगा, प्रधानमंμाी की कुर्सी पे बैठने को तो वैसे ही कई बुड्ढ़ों की लार बह रही है। महाजन और जेटली पीछे से उचक रहे हैं और रहा पार्टी अध्यक्ष का पद, तो उसकी इज्जत तो पहले ही नीलाम हुई पड़ी है।

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