राजीव मित्तल
लिज्जत पापड़ में अगर पारिवारिक जीवन को सुखमय बनाने के गुण तलाशे जा रहे हैं, तो बिना पुल की नदी बसने से पहले ही घरों को उजाड़ने का काम कर रही है। इन सकारात्मक-नकारात्मक पहलुओं का बिहार के सामाजिक जीवन में एक ही समय में समावेश अजीबोगरीब स्थिति पैदा कर रहा है। क्योंकि पापड़ तो हर कहीं है, लेकिन पुल का दशकों से इंतजार है। पापड़ परिवार को सुखमय तभी तो बनाएगा जब परिवार हो। और परिवार की आवधारणा तभी ठोस रूप लेगी, जब पुल हो।
बिहार में अब यह मांग आंदोलन का रूप ले रही है कि केवल नदी से काम नहीं चलेगा, पुल भी होना चाहिये। अगर पुल नहीं, तो शादी-ब्याह नहीं। क्योंकि दामाद-लड़की को हर तीज-त्योहार पर मायके जो बुलाना है। लड़की क्या हर बुलावे पर नाव में बैठ माझी की हैय्या हो-हैय्या हो सुनेगी? लग्न का मौसम शुरू हो गया है। शहर-शहर में गली-मोहल्लों के रास्ते बांस-बल्लियों से अट गये हैं। उन खाली जगहों पर जहां नित्य कर्म निपटान से लेकर घर-घर से कूड़ा-करकट ढलकाया जाता है, वहां बारात-भोज के लिये भट्टियां सुलगनी शुरू हो गयी हैं। लेकिन कैमूर के युवकों के चेहरे पर उदासी की घनी छाया घिर आयी है क्योंकि दुर्गावती नदी पर पुल जो नहीं है।
उस क्षेμा के पचासों गांव के न जाने कितनी बेटियों के पिताओं ने वरमाला डलवाने को घोड़ी चढ़ कर आए दूल्हों को जमीन पर पांव तक नहीं धरने दिया क्योंकि दूल्हे के घर वाले पुल बनने की कागजी घोषणा भी साथ ले कर नहीं आए थे। कुछ लाए भी तो वह विधानसभा चुनावों के समय की थी, जो कतई विश्वसनीय नहीं समझी जा रही। अब तो स्थिति और गहरा चुकी है। लड़की दिखायी के समय ही पता किया जाने लगा है कि लड़के वाले किसी नदी के किनारे तो नहीं रहते और अगर रहते हैं तो वहां पुल है कि नहीं और अगर है तो टिकाऊ कितना है। कुछ मामलों में समाज के दबाव पर बेटी ब्याह तो दी गयी, लेकिन गौना दो-चार बरसातों के दौरान पुल की मजबूती परखने के बाद ही किया जा रहा है।
लड़की के पिता का साफ कहना है कि दहेज चाहे जितना ले लो, लड़का कुछ नहीं करता-चलेगा, अंगूठा छाप है-कोई उज्र नहीं लेकिन लड़की की ससुराल में ऐसी सड़क जरूर होनी चाहिये, जिस पर बैलगाड़ी तो चल ही सकती हो और उससे भी बड़ी बात कि नदी पर पुल हर हाल में हो। सुना है कि लड़के वालों ने दहेज की राशि में घनघोर कमी कर दी है, कहीं-कहीं तो अपने ही खर्च पर शादी का सारा तामझाम और बारात को खिलाने का प्रलोभन दिया जा रहा है, लेकिन रामाशीष कहार से लेकर रामधनी चौधरी जैसे कई ने दरवाजे पर ही लड़के वालों को स्पष्ट कह दिया कि पुल दिखाओ लड़की ले जाओ। बिहार में कई नदी-नाले बगैर पुल के हैं, अभियान के व्यापक रूप लेने की आशंका है।
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