राजीव मित्तल
हमाम में सब नंगे क्या कोई गाली होती है बॉब? कभी रोमन साम्राज्य में थी चैनली, पर अब नहीं है। अब यह विश्लेषण है कुछ इस तरह का जैसे माशूका अपने आशिक को कहे-तुम बिल्कुल पागल हो। शरत के उपन्यासों में ऐसे विश्लेषण कई जगह मिल जायेंगे। पर बॅाब, यह तो उन लोगों के लिये इस्तेमाल हुआ है, जिन्हें हम एक महीने से इमामदस्ते में कूट रहे हैं। गलतफहमी में हो, अगर कूट रही हो तो अपने हाथ दुखा रही हो, जैसे पटना हाईकोर्ट ने अपना गला दुखा लिया है। तिलचट्टे की खासियत जानती हो चैनली? इस ब्रह्मांड के सबसे बेशरम जीवों में शुमार है वह। सुना है कि कई लाख साल बर्फ में दबा पड़ा काकरोच बर्फ के पिघलते ही जाग गया और शुरू हो गया ठुमक चलत राम चंद। हमाम में सब नंगे इनसे काफी प्रेरणा पाते हैं। अब देखो न, कानून ने फिर अपना गला दुखा लिया। इतरा भी रहा होगा कि अहा, कइयों के पैरों के नीचे से जमीन खिसका दी। अब यह मत कहना कि इसका क्या मतलब होता है। नहीं, नहीं बॅाब मैं समझ गयी। इसका मतलब है रोना आवे न आवे हंसी पापे लगा ले गले। अरी मूर्खा, अब पापे क्या कर लेंगे। फिलहाल अभी तो उनकी हवा संट है। की जा रही थी शेर की सवारी, अब उस पर से उतरें कैसे। और फिर पता नहीं कितनों के मुंह का निवाला छिन जायेगा। रसोईघरों में कबूतरियां घोंसले बना कर अंडे देंगी। चूल्हे पे बिल्ली सोती मिलेगी। आंटे के कनस्तर में कनखजूरे पाये जायेंगे। है ईश्वर, कौवे के मोती चुगने से नहीं, बल्कि अब असली कलयुग आया है। हम थे जिनके सहारे वो हो गये बेचारे-बस यही आवाज जगह-जगह सुनायी पड़ रही है। क्यों ऐसा क्या हो गया बॅाब? अरे कैदियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की साजिश चल रही है। पर जेल में तो जेबकतरे, गंजेड़ी, उचक्के भेजे जाते हैं? नहीं, नहीं ये वो कैदी नहीं हैं, वो तो बेचारे आज भी जेल में किसी पप्पू यादव, शहाबुद्दीन या राजा भैया का पैर दबा रहे होंगे, मैं बात कर रहा हूं उन कैदियों की, जिनमें से एक की फोटो तुमने अखबार में छपी देखी थी, जिसने अस्पताल में दरबार लगा रखा था। पर वो तो कैदी नहीं कोई मिनिस्टर-विनिस्टर था शायद? यह तुम्हारी गल्ती नहीं चैनली, एक फिल्म में संजीव कुमार का डायलॅाग है कि शादी के पंद्रह साल बाद पति-पत्नी का चेहरा काफी मेल खाने लगता है, ठीक इसी तरह कैदी और मिनिस्टर में तुम्हें कोई फर्क नजर नहीं आ रहा। तो क्या हमारे मिनिस्टर भी......? ठहरो चैनली, किसी के पास्ट को मत घसीटो। महर्षि वाल्मीकि भी डाकू थे कभी। इस युग में माधोसिंह, मोहरसिंह, फूलनदेवी जैसे न जाने कितने उदाहरण हैं। हां, बॉब, इस बात से याद आया कि वीरप्पन क्यों अलग-थलग है भारतीय राजनीति से? उस पर भोंडसी बाबा की नजर नहीं पड़ी होगी। फिर वह नीलगिरि की पहाड़ियों में कुलाचें भरता है और दक्षिण के नेता पीते तो गाय का दूध हैं पर वे भैंस का दूध पीने वाले उत्तर भारतीयों की तरहसाहसी नहीं होते। जहां बीस पेड़ों का झुंड देखा, उसे जंगल मान कार का रुख शहर की तरफ मोड़ लेते हैं। फिर एक बात और है कि उत्तर भारत में वीरप्पन जैसी कई शख्सियत शहर में ही बस चुकी हैं, उनसे कॉन्टेक्ट करना काफी आसान होता है। वे भी मुख्य धारा में हाथ-पांव चलाने को बेचैन रहते हैं। अब देखो न, बुंदेलखंड के वाल्मीकि ददुआ ने अपने दो-चार ठो एमएलए बनवा दिये हैं। अगली बार हो सकता है कि वो खुद भी सांसद बन जाएं। भारतीय राजनीति का का रंग हर चुनाव में गुलमोहर के फूलों की तरह चटकता जा रहा था कि आ गया नासपीटा ये फैसला। आशा की एक छोटी सी किरण इन सरकारों पर टिकी है, जो कानून वगैरह में पलीता दिखा कर अपने इन मेकरों के लिये जरूर कुछ करेंगी। आखिर लोकतंμा भी तो कुछ होता है चैनली, कोई जंगल राज थोड़े न है!