मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

फिर सरकार-सरकार! अरे हम मजे में हैं

राजीव मित्तल
विधानसभा चुनाव को निपटे 45 दिन और सत्ता की कुर्सी पर ‘122 की परेड करा दो तब इधर झांको’ की तख्ती लगे चालीस दिन और चालीस रातें गुजर गयीं पर कभी इस कोने से आवाज आती है कि बस डेढ़ महीना, फिर पति-पत्नी और वो। तो उस कोने से आवाज आती है कि गिनती के नब्बे दिन और उसके बाद तुम हसीं मैं जवां। बीच-बीच में आ चल झप्पी पा लें, हाथ से हाथ मिला कर ऊपर उठाएं ताकि कैमरे के फोकस में दोनों के चमकते दांत, आंखों में चमक और नूरानी चेहरे तथा पांच तेरी और पांच मेरी एक-दूसरे में फंसी अंगुलियां आ जाएं। आमने-सामने रहो तो मामला आउट ऑफ फोकस हो जाता है और अगले को कहने का मौका मिल जाता कि ऐसा करने को मजबूर हैं बेचारे।
पटना-दिल्ली किसी द्तिीय श्रेणी के वातानुकूलित शयन यान की ऊपर-नीचे की बर्थ बन गए हंै। कभी वो नीचे आ जाते हैं तो कभी ये ऊपर चले जाते हैं। लेकिन इतने पर भी नहीं जुट रहे 122। समय का फेर इसे ही कहते हैं। आठ सौ करोड़ फुंक गए, पर एक बगीचे में 122 नहीं जुटे। थाली का बैंगन भी नहीं बन सकते क्योंकि अब वो थाली ही बननी बंद हो गयी, जिसमें वे लुढ़कते थे। दो-चार की बात होती तो झारखंड ने तो सबको कटघरे में बंद कर राजस्थान घुमाया और जो न इधर के थे न उधर के, उन्हें छत्तीसगढ़ पहुंचा दिया और एक को अपोलो में भर्ती करा दिया। हम क्या करें, थोड़ा ज्यादा का सवाल है मालिक। हम तो थाली में लुढ़कने वालों को स्विटजरलैंड की सैर कराते। लेकिन क्या करें कभी मामला सौ पर अटक रहा है, कभी 110 पर।
इधर ये दोनों फोटो भले ही हाथ मिला कर झटके से ऊपर कर खिंचवाते हों पर उतने ही झटके से नीचे गिरा भी देते हैं। मुंह फेरते ही एक का बयान आता है कि मेरे घर में आ जाओ न! तो दूसरे का बयान आता है कि मैंने क्या कोदो खाया है, मेरी कोठी में क्यों नहीं आ जाते! कभी एक पेड़ के पीछे छुप कर चिल्लाता है-ढूंढो, मैं कहां हूं, तो अगला सीना ठोक कर मैदान में आ खड़ा होता है-पकड़ो, मैं यहां हूं। लेकिन उसका क्या करें जो आठ सौ करोड़ डकारे बैठा है और इन देवतुल्य जनप्रतिनिधियों को अंगूठा दिखा-दिखा कर कह रहा है कि हम तो इसी में भले, अगली बार एक हजार करोड़ फूंको तो सोचेंगे।
लेकिन भगवन,तब तक के लिये तो खामोश हो जाओ। कम से कम ये हमारे नाम पर बने इंदिरा आवासों में जा बसे मुखिया के परिवारों और उन्हें बेच खाए अफसरों की फाइल तो खुलवा रहे हैं। जिन बटमारों को आरती उतार कर टिकट थमाए कि सरकार बनने के बाद खोया-पाया कर लेना, इन्होंने उनकी थूथनी तो बंद कर रखी है। सालों से आग पर चढ़ी कढ़ाही में करछुल तो चला रहे हैं ये। तुम जनप्रतिनिधियों ने क्या किया हमारे लिये? बहरहाल वो न मानने वाले-जितने गले उतनी तानें-पर कोई भी उस सुर को नहीं पकड़ पा रहा है, जो बिहार की जनता ने 15 साल की मेहनत के बाद तैयार किया कि न तुम न वो।

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