बुधवार, 8 दिसंबर 2010

सबसे कम जान जाने का सुख

राजीव मित्तल
अगर मापतोल का बाट सही हो तो सामान ठीक तुलता है। पर मौतों का मामला थोड़ा उलट है, अगर बाट में गड़बड़ है तो सामान तो कम मिलेगा ही, मौते भी ज्यादा होती हैं। पर तराजू और बाट सही होने से अब देखो न चैनली, चुनाव आयोग से लेकर शासन-प्रशासन तक एक अजीब सा सुख तारी है इस बार। यही है बैलेंस ऑफ टेरर का सिद्धांत, जो दो बांके से उपजता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे ही शीत युद्ध कहा गया था। जब सोवियत संघ इस धरती पे मौजूद था तो क्या मजाल कि अमेरिका के कैनेडी, जॉनसन, निक्सन चादर से पांव बाहर निकाल भी लें। दोनों के अपने-अपने तखत थे उसी पे जो जितनी चाहे अंगड़ाई ले लो। सोवियत संघ होता तो क्या दोनों बुश बाप-बेटे इस तरह दूसरों की धोतियों पर हाथ साफ करने की हिमाकत कर सकते थे? नहीं समझी- रायफल के सामने लट्ठ या हंसिया की क्या बिसात! रायफल के सामने तो रायफल ही होनी चाहिये, जो अब सबके पास है। सो, खून-खराबा चूमने-चाटने जैसा रहा। हां बॅाब, बात तो सही है। पिछले चुनावों के मुकाबले एक बटा दस का हिसाब बैठ रहा है इस बार मरने वालों का। चैनली, संतुलन और जनता की समझदारी ने इस बार सारा खेल बिगाड़ दिया। एक जमाना था, जब गाजे-बाजे के साथ मतदान होता था। लुग्गे-लुगाई नये नकोर कपड़ों में गाते-बजाते वोट डालने जाते थे, उन्हें बुलाना नहीं पड़ता था, बंदूक भी नहीं दिखानी पड़ती थी। क्योंकि तब राजनीति धंधा नहीं थी, कुछ-कुछ मृणाल सेन की फिल्मों जैसी थी। अब अगर मर्द वोट डालने जाता है तो औरत उसकी जान की खैर के लिये व्रत रखती है और औरत जाती है तो मर्द किसी पेड़ पर बैठा उसकी राह तकता मिलता है। तो चैनली, मेले में भीड़ ही नहीं होगी तो वहां हुए किसी भी हादसे में लोग तो कम ही मरेंगे न। तो वोट डालना अब एक हादसे से गुजरने जैसा हो गया है। क्योंकि राजनीति एक घटिया किस्म का धंधा बन गयी है, जो अब मासूमों को डराने लगी है, तो महाबलियों को 50 राइफल के मुकाबले सौ पिस्तौल रखने को मजबूर करने लगी है। पहले हर इलाके में एकाध की पूंछ और मूंछ दोनों झव्वेदार दिख जाया करती थीं, जो 10-5 को धकेल कर अपने नेताजी के नाम पर ठप्पे लगवा दिया करती थीं। अब नत्थुलालों की भरमार है। इनमें आधे उधर-आधे इधर। तो राजनीति के इन दो-दो हाथ और दो-दो पांव ने उसे एक ऐसा चौपाया बना दिया है, जिसकी चाल बैलेंस पकड़ रही है। वोट कम नोट ज्यादा और तुरही बजाने वालों की भरमार। अब देखो न प्रधानमंμाी जी ही अपने क्षेμा में कितने वोट गिरवा पाये! दस्तरखान बिछे रह गये, पर 80 फीसदी मुसलमानों ने झांक कर नहीं देखा। जबकि न किसी टेरर था न कोई हॉरर। बुखारी की अपील सड़े दूध की मलाई साबित हुई। तो बॉब, वोटों का कम पड़ना अच्छी स्थिति तो नहीं है? चैनली, बात तो सही है। इतना तामझाम! दो महीने तक बारात को टिकाये रखा और शादी के दिन वही मूंग की दाल और जौ की रोटी। तेलगी और रंजीत डॉन की हेल्प ली जाये तो इतनी सिटकनियों औरदरवज्जों का इंतजाम करने की जरूरत नहीं रह जाएगी। मुम्बई के कालबादेवी रोड की एक कुठरिया में सारा काम हो जायेगा। मतदाता उंगली पर काला निशान लगवाये न लगवाये हार-जीत का अंतर करोड़ों में होगा बस लोकतंμा जरूर दमे का शिकार हो जायेगा।

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