राजीव मित्तल
दस अक्तूबर से बाल श्रम के कानूनी रूप से प्रतिबंधित हो जाने का असर अब देश के लाखों घरों, ढाबों, फैक्टरियों और दुकानों पर दिखेगा-उम्मीद तो यही करनी चाहिये क्योंकि शास्μा भी यही कहते हैं कि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है।
अब यह कोई अपने समय का विख्यात राष्ट्रीय दारू बंदी कानून तो है नहीं, जिसमें पीने को कॉलेज की लायब्रेरी, बोतलें खरीदने को आर्मी की कैंटीन, बनाने को स्लम बस्ती, सामूहिक मरण को अवैध शराब पीने वाले। अंत में कानून वापस लेने का हक तो सरकार को था ही। जो होना था हुआ, सुध आगे की लेनी चाहिये लेकिन एक छोटे से किस्से के बाद। कुछ साल पहले चंडीगढ़ के एक जाने-माने पμाकार के घर गाहे-बगाहे जाना होता था। खूब खातिरदारी होती थी। सात-आठ साल का एक लड़का था उनके यहां, जिसे भांजा या भतीजा बताया गया था। बेशक रहा होगा। एकाध बार वह भी साथ में खाने बैठा, पर जमीन पर। खाने के बाद उसने रसोई भी साफ की और बर्तन भी मांजे। झाड़ू-पौंछा करते तो अक्सर दिख जाया करता था। मालिकाना झिड़कियां खाते तो कई बार पाया गया। पढ़ने भेजा जाता था उसे, स्कूल या आंगनबाड़ी, इस बारे में ज्यादा मगजपच्ची नहीं की।
यह भविष्य की तरफ छोटा सा इशारा है। जब कानून तो हो, पर लागू करने वाली मशीनरी ट्रैफिक के उस सिपाही की तरह हो, जो निकर तो पहने है लेकिन कमीज गायब, या कानून को तोड़ शहर में घुस कर दौड़ लगा रहे ट्रकों को रोकने के लिये सुबह-सुबह थाने के बाहर खड़ा सिपाहियों का अमला, जिसके हाथ रोकने को नहीं, ट्रक की खिड़की से बाहर झांक रहे नोट पर लपक रहे हों। और जब कोई हेठा बगैर कुछ पकड़ाए ही ट्रक भगा ले तो उसकी पुश्तों से अपने रक्त संबंधों को जोड़ने का समूह गान हो। कहना यही है कि बिहार से तो बाल मजदूरों को समूह में हांक कर ले जाया जाता है अरब देशों तक में।
भदोही, बनारस, इलाहाबाद, मिर्जापुर के उत्तरप्रदेशीय इलाकों में गलीचा फैक्टरियों ने तो बाकायदा इस हांके के लिये दलाल नियुक्त किये हुए हैं, जो बिहार के जर्रे-जर्रे में मौजूद हैं। उस महाजन का क्या किया जाएगा, जिससे कर्ज लेकर पूरा-पूरा का परिवार बंधक बना हुआ है। इसीलिये दस अक्तूबर से लगने वाले कानून की खबर आगे कहती है कि इसमें ऐसा कौन सा सुर्खाब का पर लगा प्रवाधान है कि वह 13 करोड़ बाल मजदूरों के मां-बाप को कभी उन्हें दुलारने और स्कूल भेजने का मौका देगा। और फिर सबसे बड़ा सवाल यह है कि बच्चों के काम करने पर प्रतिबंध तो लगा दिया, अब वे करेंगे क्या। बाल श्रम प्रतिबंध कानून कोई द्रोपदी की बटलोई तो है नहीं, जिसमें पेट भरने का इंतजाम हो। अगर कोई विकल्प सोचा हुआ है तो अपनी शुभकामनाएं एडवांस में।
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