राजीव मित्तल
करीब 12 साल पहले पंजाब पूरी तरह आतंकवाद की गिरफ्त में था। रोजाना 25-30 हत्याएं आम बात थी। 50-60 तक भी पहुंच जाती थी यह संख्या। रात हो या दिन हरेक के चेहरे पे मौत का साया डोलता था। काम-धंधा किसी तरह चल रहा था। लेकिन करीब तेरह साल से झेल रहे आतंकवाद की दहशत से जैसे ही पंजाब मुक्त हुआ, वही मस्ती, वही रौनक उसके चेहरे पे आ गयी, जिसके लिए वह विख्यात है। आतंकवाद के बाद के पंजाब की चमक इसलिए और बढ़ गयी क्योंकि इस बार उसको फिर से खुशहाल करने में विदेशों में जब-तब लाखों की संख्या में जा बसे पंजाबियों ने भी खुल कर योगदान दिया। जो लुधियाना, जालंधर, होशियारपुर, गुरदासपुर आतंकवाद के अंतिम दिनों तक कस्बाई जिंदगी जी रहे थे, आज लंदन-पेरिस के नक्शेकदम पर चल रहे हैं, क्योंकि उन पर प्रवासी भारतीय बेपनाह पैसा लुटा रहे हैं। कई प्रवासी पंजाबी तो विदेशी मोह छोड़ अपने गांवों में आ बसे हैं और अपने साथ लाए हैं मेहनत से कमाई अकूत सम्पदा। उन्होंने अपने लिए तो कैलिफोर्निया और न्यूयार्क की तर्ज पर घर बनावाए ही, अपने गांव, अपने कस्बे और अपने शहर को भी उतना ही आधुनिक बना दिया है, जिसका आनंद वे अमेरिका-ब्रिटेन में उठाते आ रहे थे। विदेशों में बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल कर वहीं शानदार नौकरियां पा जाने वाले पंजाबी युवक भी अपने पंजाब को नहीं भूले। किसी ने अपने शहर के कालेज की लायब्रेरी को बेहतर किया तो किसी ने अपने कॉलेज को नया रंगरूप दिया। अमेरिका में बसे कुछ पंजाबी डाक्टरों ने तो अमृतसर के मेडिकल कालेज को अत्याधुनिक बनाने का बाकायदा प्रोजेक्ट तैयार किया है। इसे वे अपनी गुरुदक्षिणा मानते हैं। इसी तरह बीसियों साल से खाड़ी देशों में कमाने जा रहे केरल वासियों ने अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा परिवार के साथ-साथ अपने राज्य को निखारने में लगाया। यही स्थिति गुजरात की है, जहां पटेलों ने जी खोल कर खर्च किया। लेकिन क्या यही बात हम बिहार में पाते हैं? विदेश जाने वालों में सबसे पहले बिहार के ही लोग थे। सौ-सवा सौ साल पहले भले ही वे मजदूर बना कर जबरन पानी के जहाज पर लादे गए हों, पर आज वही बिहारी मॉरिशस और मालदीव या वेस्टइंडीज के देशों में एक हैसियत रखते हैं। आज देश की प्रशासनिक सेवाओं में बिहारियों का नाम सबसे ऊपर लिया जाता है। सूचना प्रोद्योगिकी में बिहार की एक बड़ी हिस्सेदारी है। डाक्टर-इंजीनियर जैसी कमाऊ सेवाओं में भी बिहारी कम नहीं। पिछले दस साल में हजारों बिहारी विदेशों में जा बसे हैं, अपने पूर्वजों की तरह मजदूर बन कर नहीं बल्कि अपनी शिक्षा-दीक्षा के बल पर, अपने दिमाग के बल पर। पर वे सब आज जरा अपने दिल पर हाथ रख कर पूछें कि अपने राज्य के लिये क्या कर रहे हैं। उनके दिल-ओ-दिमाग में बिहार का कोई अंश बाकी बचा है? केवल छठ पूजने तक या दहीचूड़ा खा लेने से उन्होंने वो कर्ज उतार दिया, जो बिहार की माटी का उन पर चढ़ा हुआ है? आज तक किसी ने घूम कर भी अपने राज्य की, अपने शहर की या अपने गांव की दुर्दशा पर निगाह डाली? यह एक कड़वी सच्चाई है कि बिहार का नौजवान तबका विदेश तो क्या अगर अपने देश में ही जब अपना भविष्य सुधारने को अपना शहर छोड़ता है तो फिर अपनी धरती पर ईंद के चांद की तरह ही दिखता है। उस दौरान भी वो प्रवासी ही बना रहता है। यह तबका अपना राज्य छोड़ एक तरह से भाग रहा है कभी मुड़के न देखने के लिए। और इसके लिए वो कम, धराशायी हो चुकी सामाजिक व्यवस्था, सत्ता हासिल करने के लिए केवल वोट पाने तक अपना कर्म पूरा कर रही सरकार, जिसके सैंकड़ों कर्मचारी सिसक-सिसक कर मरने के लिए सांस खींच रहे हैं, पग-पग पर राजनैतिक-प्रशासनिक रंगदारी, गंुडागर्दी, चोरी-ऊपर से सीनाजोरी वाला चौतरफा हाल, अंधाकारमय भविष्य, डराता वर्तमान और कसक पैदा करता बीता कल जिम्मेदार है। लालू जी, आपके पास है कोई जवाब?
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