सोमवार, 6 दिसंबर 2010

नदियों पर बांध यानी आ सांड़ मुझे मार

राजीव मित्तल
इस चुनाव में बांध कोई मुद्दा नहीं है, उसी तरह जैसे विकास से जुड़ा कोई भी मुद्दा किसी शाख पे लटका सूख रहा होगा। हालांकि बोलने को सब बोल रहे हैं कि हमें इस बार अगर सत्ता सुख ( यह एक ऐसी भावना है जिसे व्यक्त करते हर किसी को लाज लगती है )भोगने को मिला तो विकास को बिस्तरबंद में लपेट कर लाएंगे। हर चुनाव के बाद बिस्तरबंद खुलते हैं। उसमें चादर-तकिया तो निकलता है पर विकास को किसी डिब्बे में डाल किसी मालगाड़ी में बुक करा दिया जाता है और उस मालगाड़ी का इंजन अपने प्रस्थान करने वाली जगह पर ही शंटिंग करता रहता है। इस तरह विकास के न जाने कितने पार्सल उसी मालगाड़ी के जर्रे-जर्रे में लदे हैं, जिसका इंजन बरसों से शंटिंग कर रहा है। यहां बांध की बात करना थोड़ा इसलिये जरूरी हो गया है क्योंकि बिहार के लाखों लोगों के लिये बांध और नदी की लड़ाई या नूरां-कुश्ती देखना मजबूरी बन गया है। यह कहना कि सांड़ लाल कपड़े से भड़कता है, आधा सच है। वह तो हर उकसाने वाली हरकत से भड़कता है। ठीक वही हाल बिहार की नदियों का है, जो अपने किनारों पर मिट्टी के लौंदे के तरह पड़े बांधों को देख कर बेकाबू हो जाती हैं। किसी भी बरसात में नदियों को फलता-फूलता देख बांध की तख्ती लगाये कोई भी टीला विश्वामिμा बन डोलने लगता है। पर मेनका बनीं नदियां पूरी निष्ठा के साथ अपना काम करती हैं और हजारों एकड़ खेत, हजारों मकान-झोंपड़े अपने दामन में लपेट कर नाला बन जाती हैं। इधर, थर-थर कांपते बांध नदियों की उजाड़ी दुनिया को ‘हमीं ने दर्द दिया हमीं दवा देंगे’ गाते हुई बसाने में लग जाते हैं और बन जाते हैं केयर ऑफ फलाना या ढिमाका टीला। इन बांधों पर हुई बसावट एक ऐसी दुनिया बन जाती है, जिसका काम केवल सांस लेना और सांस छोड़ना है। मरने पर कोई संताप नहीं और जन्मने पर किसी ढोलक पे थाप नहीं। हर छोटे-बड़े शहर में ऐसी बस्तियों की भरमार होती है, जो शहर के चेहरे को बदरंग बनाती हंै पर उन बस्तियों के इंसान किसी नागरिक अधिकार से महरूम नहीं रहते। चाहे वे उसे झपट कर लें या छीन कर। वे वोट भी देते हैं, जब उनकी बस्ती तोड़ी जा रही होती है तो टीन-टप्पर वाले कमरे की जगह पक्की छत वाला मकान वसूलते हैं, उनके पास लाल-हरा-नीला-पीला राशनकार्ड भी होता है, उनके बच्चे स्कूल जाते हैं। उन बस्तियों में स्वंयसेवी संस्थाओं के भी चक्कर लगते रहते हैं और चुनाव-बेचुनाव नेता-मंμाी भी पिकनिक मनाने वहां चले जाते हैं। यह सब इसलिये क्योंकि वह बस्ती एक वोट बैंक भी होती है। लेकिन बिहार के बांधों पर पड़े जीवों को कोई पूछने वाला नहीं। चाहे बाढ़ 1979 की हो या 1987 की या 2004 की या इससे पहले के या इन बीच के सालों में किसी भी सन् की, उनकी जमीन, उनके खेत, उनके मकान नदी डकार चुकी होती है और बाकी जिंदगी काटने को बचता है वही बांध, जिसने उनकी दुनिया ही उजाड़ कर रख दी है। नेता, जो किसी चुनाव में भगवान का छप्पर फटने से विधायक बन गया है, हर बाढ़ में हवा में आता है और हवा में ही चला जाता है जैसे बड़ा मनभावन नजारा देखने आया हो। आम दिनों में और चुनाव के खास दिनों में भी उसे बांध के उस जीव से कोई मतलब नहीं रह जाता जो अब एक जन्तु में तब्दील हो चुका होता है। फरवरी आधी बीत चुकी है, बरसात के पांच महीने बाकी बचे हैं। अब देखना है कि इन बांधों की जिंदगी से कच्ची डोर की तरह जुड़ा कोई नेता या विधायक इस बारिश में उठ रहे क्रंदन में कौन सा संगीत तलाशता है।

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