बुधवार, 8 दिसंबर 2010

भारतीय राजनीति को रसातल से निकालने के उपाए


राजीव मित्तल


रसातल के पेंदे को छू रही भारतीय राजनीति को लेकर चिंतित नेताछाप बुद्धिजीवी वर्ग ने एक सेमिनार आयोजित किया। विषय रखा गया ‘राजनीति का डाल्फिनीकरण करने के उपाय’। कुछ ने डाल्फिनीकरण शब्द पर आपत्ति जताई। उनका कहना था कि जब हमें ही समझ में नहीं आ रहा तो राजनीति में अभी जिनका रैपर भी नहीं उतरा है उन चिकनबाजों, दारूबाजों, बटमारों, सेंधमारों और खालिस चार सौ बीसियों को हम क्या खाक समझा पाएंगे जबकि यही लोग हमारी चिंता से जुड़े विषय का अभिन्न अंग हैं।

खैर, समझने-समझाने के लिये चिकने कागज पर बनी डाल्फिन की तस्वीरों की किताब लायी गयी। तस्वीरों में उछाल मारती, मुंह खोलती, अठखेलियां करती डाल्फिन और उसको गाइड करती एक खूबसूरत युवती मौजूद थी। तस्वीरें देख एकाध की राय बनी कि क्यों न भारतीय राजनीति को इस युवती जैसा खूबसूरत बनाया जाये। जब उन्हें समझाया गया कि मामला रसातल से उबारने का है न कि खूबसूरत बनाने का, तो किसी ने एक तस्वीर छांट कर दिखायी कि यह देखो उबरने की जीती जागती मिसाल.........खूबसूरत बाला कितनी खूबसूरती से पानी में डुबकी लगा कर ऊपर आ रही है.......मिल गयी न राजनीति को उबारने की तस्वीर!!!!!!!

चिंतन में नेताओं की किस्म को बूझते हुए डाल्फिन और युवती दोनों को विषय से बाहर कर दिया गया। फिर स्वेट मार्टन की किताब ‘नेता कैसे बनें’ को चर्चा का विषय बनाने का सुझाव उछला.... जिसमें उसने ऐसा कुछ जरूर लिखा होगा.. जो भारतीय राजनीति के पुनरोद्धार में सहायक हो। तभी एक ने कहा कि इस मामले में रितु बेरी को क्यों न टटोला जाये। उस पर सवाल और ऊपर उछला कि एक फैशन डिजायनर का राजनीति से क्या वास्ता।.... क्यों अगर उसके डिजायन किये कपड़ों से हमारा व्यक्तित्व निखर सकता है तो राजनीति में निखार अपने आप ही आ जाएगा ...... भाईसाब....... यहां निखारने की नहीं.. उबारने की बात हो रही है। लेकिन हम तो अपने को तो निखारते आ रहे हैं.....इसमें नया क्या है.....उस निखारने का राजनीति पर खाक असर पड़ा! बात तो सही है....लेकिन .. देखा नहीं कि कुछ साल पहले हुए एक सर्वेक्षण में आडवाणी जी को निखरों में अव्वल का खिताब मिला था। छोड़ो छोड़ो.....वो हैं वो नहीं हैं दोनों एक समान....
क्यों न राजनीति को केंचुआ छाप बनाया जाये!!!!! अभी क्या कम है क्या, किसी ने ठेका लगाया। .... बात को पहले समझो... देखो अब तक हमारा समाज केंचुए को रीढ़ की हड्डी से जोड़ कर नकारात्मक रवैया अख्तियार करता रहा है, जबकि केंचुए से ज्यादा कोई सकारात्मक प्राणी है इस दुनिया में! कुछ करे तो भी, कुछ न करे तो भी।

पर..... एक सवाल यहां खड़ा होता है बंधु कि केंचुए की विष्ठा ज्यादा लाभकारी होती है जबकि हमें सिखाया गया है कि खा जाओ और डकार भी मत लो। इस विरोधाभास के चलते केंचुआ हमारा क्या मार्गदर्शन कर पायेगा। इस तर्क की सबने सिर हिला कर दाद दी।

तभी वामपंथी से लग रहे सज्जन ने हाथ से अवसर न जाने देने के लहजे में कहा... मार्क्स ने कहा है कि क्रांति बंदूक की गोली से आती है... एक बार उसका भी इस्तेमाल क्यों न कर के देख लें। इस पर कई भड़क गए-पहली बात तो हमें क्रांति की जरूरत नहीं, वैसे तुम कहना क्या चाहते हो, जिनको हम सुधारने की बात कर रहे हैं वे इस ठांये-ठूं से डर जायेंगे-----भाईजान, उनके पास जेल तक में असलहों की कमी नहीं होती। रोज सुबह-शाम जेल के सिपाही, दरोगा उन्हें रेत रगड़-रगड़ कर चमकाते हैं ताकि शाम को निशानेबाजी की प्रतियोगिता में उनकी चमक दिलों को दहलाए। और फिर अब तो..... कभी लाल किताब हाथ में लिये बगैर शौचालय में पैर न धरने वाले कई सूरमा मुख्य धारा में बिन बुलाये ही शामिल हो चुके हैं..... और बाकी.. समय का इंतजार कर रहे हैं बेहतर हिस्सेदारी के मिलने का।

अरे भाई.. इस तरह तो हम अपनी मंजिल तक ही नहीं पहुंच पायेंगे और भारतीय राजनीति रसातल में नाक तक धंस चुकी होगी। ऐसा करते हैं कि नयी संसद के बनने का इंतजार करें, जिसमें अब तीन साल रह गये हैं और सांसदों के शपथ लेने के बाद जो संसदीय कमेटियां बनेंगी उसमे से किसी एक को यह मामला सौंप देंगे जो प्रस्ताव बना कर दोनों सदनों में पारित करा लेगी। सबने ताली बजा कर सेमिनार के सफल समापन का स्वागत किया। उसके बाद सब ‘चुनावी राजनीति का 59 साल और हमारे इरादे’ विषयक गोष्ठी में हाजिरी बजाने चल पड़े।