रविवार, 26 दिसंबर 2010

कटआउटों से झरते सपने

राजीव मित्तल
रैलियों के मौसम में सोनपुर का मेला एक सुखद संयोग है। एक साथ दो तरह के कटआउट देखने को मिल रहे हैं। एक कटआउट में जैसे नेता सिर पर चढ़ा आ रहा है और हाथ पकड़ कर कह रहा है मेरे साथ चल, वो चोर है। तो सोनपुर मेले के थियेटराना कटआउट कह रहे हैं कि बेवकूफी मत कर उनके पास कुछ नहीं दिखाने को, हाहाकारी शिल्पा को देखना है तो आ, इधर को निकल आ, जन्नत की सैर करनी है तो इस जमावड़े को चीर कर आ। भीड़ दोनों जगह है क्योंकि उसे भुला देना है कि इस बार बाढ़ का पानी उसकी छाती पर से होकर गुजरा है और सूखे ने उसकी कमर झुका दी है। अगले साल की अगले साल देखी जाएगी। ये दोनों तो अब एक आदत बन चुके हैं। तो, भीड़ में कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें न बाढ़ को भुलाने की जरूरत है न सूखे को, उनके लिए दोनों उतना ही मजा देने वाली चीज हैं, जो मजा ये विभिन्न पोजों वाले कटआउट दे रहे हैं। रैली को और लुभावना बनाते हैं नेताई कटआउट। रैली में जुटी भीड़ उन कटआउट में अपनी जाति के संत या पीर को देखती है, अपने खेत में लहलहा रही फसल को देखती है, घर में परांत भर पकी रोटी को देखती है, अपने सिर के ऊपर सीमेंट से बनी छत को देखती है, अपनी नदी का निर्मल जल देखती है और अपने गांव को जाती पक्की को सड़क देखती है। मजे की बात यह कि दोनों ही तरह कटआउट बरसों से लाखों-करोड़ों को एक सपनीली दुनिया का मजा दे रहे हैं। सोनपुर का मेला तो 15-20 दिन बाद खत्म हो जाएगा और वो सपनीली दुनिया दो सौ एकड़ का मैदान बन कर रह जाएगी, पर रैलियों का दौैर थोड़ा लम्बा खिंचेगा। हर कटआउट के मन में अगले के लिए कई सारी भड़ास हैं और सामने बैठी भीड़ को दिखाने को उसके पिटारे में कई सारे सपने हैं। भले ही बासी और बदबू मारते। रैली में जुटी भीड़ को उस बच्चे की सी आदत पड़ चुकी है, जिसे रात को दादी या नानी से परियों की कहानी सुने बगैर नींद नहीं आती। रोजमर्रा वही संुदर परी, वही भयानक राक्षस और वही सलोना राजकुमार। दोनों जगहों की भीड़ ने अपनी भूमिका तय कर ली है। मेले में हर कोई राजकुमार है, जो सामने स्टेज पर नाच गा रहीं परियों के झुंड के दिलों में पता नहीं कब का उतर चुका है। और रैली में कोई सी भी जुटने वाली भीड़ खुद को पता नहीं कबसे दादी-नानी की कहानी वाली परी माने बैठी है और सामने मंच पर वही कटआउट वाला सपनों का राजकुमार, जो उसे वह सब देने आया है, जिसकी आस वह बरसों से लगाए है। जीने लायक जीवन की और मरने लायक मौत की। लेकिन वो राक्षस कहां है, जिसके बिना परी और राजकुमार की कहानी अधूरी है। इंतजार कीजिए। यह राजकुमार बहुत सुंदर है, बहुत बहादुर है, इसके थैले में सपने आलू की तरह भरे हैं, पर गद्दी अब तक नसीब नहीं हुई। इसको पता है कि राक्षस कौन है, हत्यारा कौन है, माफिया को कौन पाल रहा है, जनता का खून बरसों से कौन चूस रहा है, जनता को इस बुरी गति में किसने पहुंचा रखा है। बस यह उस कुर्सी को चाहता है, जिसमें उस राक्षस की जान है, इसके गद्दी पर बैठते ही वह राक्षस भस्म हो जाएगा औेर जनता की सारी तकलीफें दूर हो जाएंगी। अब महारैली-जिसमें कई सारे कटआउट एक स्वर से बचाओ-बचाओ जैसा स्वर निकाल रहे हैं और बखान कर रहे हैं कि कैसे देश की जनता ने पूतना राक्षसी जैसी इमरजेंसी को लातों से रौंदा था, यह सामने वाला तो एक हुंकार में चित हो जाएगा, बस जनता एक बार फिर अंगड़ाई ले ले। एक महारैला भी प्रस्तावित है, जिसमें राजकुमार नहीं खुद राजा पधारेंगे, जिनकी कैद में राक्षस बरसों से पड़ा हुआ है। इसलिए उस तरफ से तो परी को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं, पर इन राक्षसों का संहार कैसे हो, जो उन्हें ही राक्षसों का सरदार बता रहे हैं। इसी का तोड़ महारैला में तलाशा जाएगा।

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