मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

कहीं कुछ नहीं बदला, ईश्वर भी

राजीव मित्तल
कुछ नहीं बदला, नहीं बदले हमारे गांव।
है वही पंडा, वही मंदिर
गजब है
मूर्ति पूजन का न हक तब था न अब है
कवि श्यामलाल शमी को भी पता है और हमें भी कि इस समय मायावती अपनी खुद की उसी मूर्ति को निहार रही होंगी, जिसका अनावरण उन्होंने कुछ दिन पहले ही किया था, राजा-महाराजाओं सी शानशौकत के साथ अपनी बिटिया की शादी निपटाने वाले राम विलास पासवान की तान वही है कि किसी मुसलिम को मुख्यमंμाी बनाओ और सामाजिक न्याय के प्रणेता लालू प्रसाद यादव मुसहरों को फिर से नहलवाने का मसालेदार नुस्खा किसी भी ऐसी जगह तलाश रहे होंगे, जहां एसी जरूर लगा होगा। लेकिन इनमें से किसी तक चकरावे मनियारी और गनीपुर बेझा गांवों के दलित टोलोें की बिमला देवी या शुभांगी की सिसकियां नहीं पहुंची होंगी। न ही आक्रोश में भरे उस युवक की आवाज कि अगर हमारे पास पैसा रहता तो हम गोली मार देते।
ये सिसकियां और यह आक्रोश एक दिन के कियेधरे का नतीजा नहीं है, यह सदियों पुराना वह खेल है जो आज भी गांव-देहात में उन्हीं की शर्तों पर खेला जा रहा है क्योंकि उनके पिंजरों में तोता-मैना के साथ-साथ दलितों का कल, उससे पहले का कल, उससे भी पहले का कल और आज और आने वाले तमाम दिन कैद थे और कैद रहेंगे। ठीक उसी तरह जिस तरह उन्होंने अपने-अपने ईश्वरों को मंदिरों में कैद कर लिया है ताकि वहां कोई कुत्ता-बिल्ली न घुस पाए। और उनके गुलाम उस तरफ झांके भी नहीं। ईश्वर को शुद्ध बनाए रखने की ‘ऐसी भक्ति’ से अघा कर ही बुद्ध को कहना पड़ा था - बुद्धि के ऊपर वेद को रखना, संसार का कर्ता ईश्वर को मानना, स्नान करने में धर्म होने की इच्छा, जन्म-जाति पर गर्व करना तथा पाप नाश के लिए व्रत आदि द्वारा शरीर को कष्ट देना ध्वस्त बुद्धि वाले मूर्खों के लक्षण है।
विडम्बना यह है कि जिस मुजफ्फरपुर शहर से लगे सकरा के चकरावे मनियारी और गनीपुर बेझा गांव हैं, जहां के किसी मंदिर के दर्शनों को लेकर दलित स्μिायों से मारपीट की गयी, उसी के आसपास ढाई हजार साल पहले महात्मा बुद्ध भी विचर रहे थे। इन गावों का काली देवी का मंदिर हो या और किसी और देवी-देवता का मंदिर, है आज भी उन्हीं लोगों के कब्जे में, जो करोड़ों नर-नारियों के जीवन को अभिशाप में बदलने की कुव्वत हजारों साल से रखते आ रहे हैं क्योंकि उनके शरीर में आर्यों का शुद्ध रक्त है। हिटलर ने तो 20 वीं शताब्दी में इस शुद्ध रक्त को पहचाना, पर अपने देश में इस शुद्ध रक्त की पहचान और ज्यादा खुल कर कृष्ण के प्रयाण के बाद ही हो चुकी थी।
और तभी से खेल चल रहा है शुद्ध रक्त की शुद्धता को बनाए रखने का, जिसमें अशुद्धों को गुलाम बना कर उनके साथ किया जा रहा वह हर कर्म शामिल है, जो चूहों, तिलचट्टों, मक्खी-मच्छरों को भी नसीब नहीं। इस पूरे खेल में वैसे तो उनके लिए आनंद ही आनंद है, जो दोगुना तब हो जाता है जब किसी दलित स्μाी की इज्जत तार-तार हो रही हो क्योंकि ठहाके लगाने का सुअवसर कभी-कभी तो नसीब होता है। सवर्ण मानसिकता का यह खेल ऐसा कोलाज बनाता है, जिसमें देह को लतियाना उन्हें नयन सुख देता है तो सिसकियां और चीत्कार श्रवण सुख।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें