रविवार, 26 दिसंबर 2010

शुरू होने को है उत्सवों का दौर

राजीव मित्तल
इस बार बिहार में फिर से चुनाव कराने की जो बिसात बिछायी गयी है, उससे पहले दो बड़े आयोेजन करीब-करीब तय हैं- पहले कहीं सूखा और फिर कहीं बाढ़ या कहीं-कहीं दोनों एक साथ। ये दोनों आयोजन आत्मा और परमात्मा के संयोजन से पहले भी होते रहे हैं और इस बार भी इसमें कुछ नया नहीं होना लेकिन एक ही साल में दोबारा चुनाव इन दोनों से कहीं बड़ी, पर प्रायोजित आपदा है , जिसे इसलिये होना है क्योंकि पिछले उत्सव में मतदाता यही तय नहीं कर पाया कि वह पतुरिया का नाच देखे या साध्वी के भजन सुने। उसकी आंखें नाच से नहीं हट रही थीं और कान भजन में लीन थे। अबकी बार के करीब हजार करोड़ रुपये के इस प्रायोजित खेल में उसे हर हालत में यह ताड़ना सुनने को मिलेगी कि हमें सड़क पर ला खड़ा किया, क्या मिला? अब तुमसे न तो आंख चुरानी है, न कोई वादा करना है, न कोई सपने दिखाने हैं। हम कल भी हाथी पर थे आज भी हाथी पर हैं, तुमने जरूर अपने नौ महीने पानी में बहा दिये। वरना सड़कें सर्पीली और रपटीली होतीं, बिजली इतनी होती कि तुम उसके प्रकाश में रात भर सो नहीं पाते, कालाजार के मच्छर की उड़ान की ऊंचाई एक फुट छांट दी गयी होती, बाढ़ का पानी तुम्हारे पांव पखार कर लौट जाता, हम गर्मी भर पुरवइया चलवाते, तुम्हारी थाली में बत्तीस बार चबाने लायक कौर तो जरूर होता, अपराधी भजन गा रहे होते वगैरह-वगैरह। चलो, अब भी कुछ ज्यादा नहीं बिगड़ा है। देखो, पिछली बार की गल्ती मत कर डालना, सरकार जरूर बनवा देना। सर जी, वोट तो हम दे ही देंगे और देते ही आए हैं, पर इस बाढ़ का क्या करें, गांव-गांव में कंपकंपी छूट रही है। अरे भई घबराते क्यों हो? जरूरी है कि इस बार पानी बरसेगा ही? हो सकता है सुखाड़ पड़ जाए। लेकिन भई इस बार हम ज्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे क्योंकि अभी तुम लोगन की सरकार आने में कई महीने पड़े हैं। इतना ही कर सकते हैं कि दिल्ली तक तुम्हारी विपदा पहुंचा दें। और कहीं अगर तुम बाढ़ में घिर जाओ, तुम्हारे घर गिर जाएं, तुम्हारे खेत डूब जाएं तो भी हम दिल्ली-पटना एक कर देंगे। इसलिए ऊपर वाले से मनाओ कि सुखाड़ ही रहे क्योंकि उसमें ढहता कुछ नहीं है। खेत-खलिहान-घर सब अपनी जगह खड़े रहते हैं, बस खेतों में धूल उड़ती है और आप सब आंख पर हाथ धर आसमान को ताकते हो। हमरी समझ में तो इस बार चुनाव के चलते बाढ़ से बेहतर सुखाड़ बेहतर ही रहेगा, क्योंकि वोट मांगने में थोड़ी सहूलियत होगी। पिछली बाढ़ की याद कर तो हमें भी नानी याद आ जाती है। लेकिन यह सोच कर अच्छा नहीं लग रहा कि इस बार आप सब को सरकारी मदद बाबुओं के हाथों से मिलेगी। और इस नौटंकी में हम दर्शक बने रहेंगे। चलो, यह सब नसीब की बात है। इस बार उनको ही जी खुश करने लेने दो। बस बीड़ी सुलगती रहे चाहे उनकी चाहे हमारी। हां, लेकिन भूल न जाना हम वोट मांगने जरूर आएंगे।

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