मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

हाय-तौबा न मचाएं गंगाजल सहेज लें

राजीव मित्तल
यह काम आज कर लें, तो वक्त बे वक्त भागीरथी का जल अपने आसपास छिड़क तो सकते हैं, हो सकता है पापों के साथ मच्छर भी भाग जाएं। यह सुविधा भी कुछ ही दिन की है, पता नहीं कब गंगा का काला, बदबू मारता पानी आपको अपनी नाक पर कपड़ा रखने को मजबूर कर दे क्योंकि उसके नाला बनने की आधिकारिक घोषणा कभी भी हो सकती है। इस कड़वी सच्चाई को बरसों की आस्था और धर्म-कर्म के छिलके उतार कर जितनी जल्द समझ लें उतना ही अच्छा है। गंगा और गाय हजारों साल से इस देश की आत्मा में बसी हुई हैं। लेकिन अब इन दोनों का वही हाल हो चला है जो श्मशान में अधजले शव का होता है।
जब परिजनों का रुदन घर तक पहुंचते-पहुंचते सिसकियों में बदल चुका होता है, देसी घी और चंदन के धुंए की महक उड़ चुकी होती है तो बाद के सन्नाटे में कुत्ता घसीटी ही होती है अधजले शव की। गंगा तेरा पानी अमृत एक पौराणिक आख्यान बन चुका है, जिसे किसी आश्रम में ही उच्चारित किया जाए तो कम से कम राजा सागर के 60 हजार पुμाों को तारने वाली इस पविμा नदी का अपमान तो न हो, जो सदियों से घर-घर में जाप कर किया जा रहा है। जिसके जल को पानी या वाटर कह देने से भगवाधारी दंगे पर उतर आते हैं। तो साहेबान, इस कड़वी गोली को निगल ही लीजिये कि कानपुर तक आते-आते गंगा नाला बन चुकी है। और इसके उद्गम स्थल गोमुख से जो पविμा जल निकल रहा है वह पॉलिथीन के कचरे के ढेरों से ‘एक्सक्यूज मी’ कह कर किसी तरह आगे बढ़ रहा है।
गंगा का हर किनारा चीनी मिल का पिछवाडा¸ बनता जा रहा है, जहां मिल से निकल गंदा-विषैला पानी जमा होता रहता है और जिसकी तीखी बास मीलों दूर तक छितरायी रहती है। जहां-तहां गंगा सफाई अभियान पर अरबों रुपये खर्च हो चुके हैं लेकिन विकास की उस राह का क्या कीजियेगा, जो गंगा को नाला बनाने पर तुली हुई है और विकास की उस राह पर जगह-जगह खम्भे गड़े हुए हैं कि यहां गंगा का बहना मना है। गंगा तो छोड़िये इस देश की कौन सी नदी सरस्वती की राह पर नहीं है? जिस लापता को तीसरी नदी मान प्रयाग में हर 12 साल बाद कुम्भ का मेला लगता है। देश की किसी भी नदी का यह हाल देख विश्व बैंक तक थर्रा कर अपनी गांठ से धनराशि निकालता है, लेकिन जिसे नदियों की सफाई पर खर्च करने के बजाये दो बिल्ली एक बंदर वाला खेल खेला जाता है।
पटना से गंगा तीन किलोमीटर दूर खिसक गयी है तो! उसका पानी मटकों में भर कर मंगवा लेंगे लालू जी और शμाुघ्न सिन्हा जी। गंगा के पानी में चर्म रोग को बढ़ा रहा कॉलीफार्मा नाम का कीटाणु बजबजाने लगा है तो! हर-हर गंगे, मां गंगे कह देने से जब सारे पाप धुल जाते हैं तो वह कलमुंहा कॉलीफार्मा कब तक खैर मनाएगा। लेकिन यह जान लीजिये कि जैसे अभी खुदाई में दो हजार साल पुराने शहर का पता चला है और सम्भवना जतायी जा रही है कि कहीं यह साकेत नगरी तो नहीं, उसी तरह देश के उत्तरी हिस्से में कभी किसी खुदाई से एक नाला निकलेगा तो हो सकता है आपकी औलादों की औलादों के मुंह से निकल पड़े कहीं यह गंगा तो नहीं।

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