राजीव मित्तल
इस समय जबकि राजस्थान, उत्तरप्रदेश और हरियाणा में पानी को लेकर हाहाकार मचा हुआ है और सेंट्रल बिहार सूखे की चपेट में है तब उत्तर बिहार के नदी-नाले उफनाए हुए हैं। कई शहरों में बाढ़ का पानी घुसा आ रहा है या घुसने को बेताब है, एक के बाद एक तटबंध टूट रहे हैं, रेलवे लाइनें चटक रही हैं, सड़क के नाम पर जो कुछ है उन पर पानी धाराओं में बह रहा है। वैसे भी सीतामढ़ी को जोड़ने वाले राष्ट्रीय मार्ग 77 के किनारे तो साल भर नाव चलती है।
वहां पानी बरसे या न बरसे, नेपाल का पानी बागमती के किनारे तोड़ कर सड़कों को डुबो देता है। ऐसा तो है नहीं कि यह सन् 2005 की भूली-भटकी विपदा है, दसियों साल से यही हाल है, यही हो रहा है लेकिन इस बारे में सोचने की फुर्सत न तो किसी राज्य सरकार को रही है न केंद्र सरकार को। उंचाई वाले नेपाल के जंगल तराई तक साफ हो चुके हैं। इन वनों को कुतरने में माहिर भारतीय ‘लकड़हारों’ का बहुत बड़ा हाथ है। कुछ साल पहले तक घने जंगलों से होकर आने वाला जो पानी जमीन को उपजाऊ बनाता था, अब नंगे पहाड़ों को कुरेद उनकी टनों गाद और पत्थर लाकर उत्तर बिहार की सारी नदियों को बुरी तरह छलका रहा है। यह छलकता पानी अब खेतों को उपजाऊ नहीं बना रहा, अपनी गाद झोंक कर उन्हें भी रेतीला बना रहा है।
स्थिति कितनी भयावह है यह इससे पता चलता है कि इस बार सावन करीब-करीब सूखा गया लेकिन एन-एच 77 पर परम्परागत रूप से नाव चल रही थीं या ट्रेक्टर चल रहे थे। क्या उत्तर बिहार के जी का जंजाल बना हुआ यही पानी सेंट्रल बिहार को सूखे से नहीं बचा सकता? ऐसा कोई उपाय तो होगा ही, नहीं है तो तलाशना होगा क्योंकि आने वाले समय में जब पानी को लेकर दुनिया भर में मारामारी हो रही होगी तो उत्तर बिहार की जमीन दलदल बन चुकी होगी और हर बरसात में मुजफ्फरपुर हो या दरभंगा, मोतिहारी हो या मधुबनी-इन शहरों की जनता नावों पर तैरने को मजबूर हो जाएगी और गरीब-गुरबा सांप के साथ पेडों¸ पर लटके नजर आएंगे।
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