rajiv mittal
बॉब, ऐसा नहीं लग रहा कि जैसे बुखारी और अटल चौराहे पे एक साथ खडे¸ हो अजान दे रहे हों और साथ ही तुलसी की चौपायी भी गा रहे हों। पिछले दो महीने में भाजपा में ऐसा क्या बदलाव आ गया कि बुखारी को शहाबुद्दीन बीमार हाथी नजर आ रहे हैं और सेक्यूलर शब्द से उनका पित्त एकाएक उभर आया है? चैनली ऐसे दो महीने, अगर केन्द्र के किसी चौधरी को बीच में ही डायरिया न हो गया हो तो, पांच साल में जरूर आते हैं। ठीक उसी तरह जैसे बारह साल बाद कुम्भ या चार साल बाद फरवरी का 29 वां दिन। इन दो महीनों के दौरान कैसी भी कलिहारी सास हो, अपनी बहू को लक्ष्मी, दुर्गा, साविμाी वगैरह वगैरह का दर्जा दे उसका गुणगान मुंडेर पर बैठे कौवे और दर-ओ-दीवार तक से करती है। सुबह-शाम अरहर की दाल में एक्सट्रा घी डालती है। रात में उसके सिर में नारियल का तेल मलती है। रिश्तेदारी में भेजते वक्त उसे अपने उसे हाथों से सजाती है और बेटे को ताकीद करती रहती है कि रात को खाली हाथ न आये, साथ में बहू के लिये मिठाई या फल जरूर हो। सिर्फ दो महीने बॅाब? क्योेंकि उस समय तक सास के कान में रह-रह कर जच्चा-बच्चा केंद्र से पोते के रिरियाने की आवाज सुनायी पड़ने लगती हैं। भारतीय राजनीति में ऐसे ही दो महीने आत्ममंथन के कहलाते हैं और उस मंथन से निकले गरल को नौसादर के पानी में मिला कर उसका अर्क तैयार किया जाता है, जिसे हर नेता रोज सुबह-शाम एक औंस पीता है। इसको पीने के बाद चार पूर्णमासी तक सुबह आसमान में लाली छाते ही दुश्मन की दुश्मनाई और दोस्ती की गर्माहट दोनों का किसी तालाब, नदी या नाले में तर्पण किया जाता है। इससे सुर बदलने में प्राकृतिक-अप्राकृतिक दोनों तरह से मदद मिलती है। ऐसा कोई क्षण नहीं, जब नेता कव्वाली गाते न दिखें। इन दो महीनों के अखबारी या टीवी पर दिये बयान देखो चैनली, लगता ही नहीं कि सप्ताह सात दिन का होता है। रविवार के बाद एकदम शनिवार आ धमकता है तो मंगल की चोंचें गुरुवार से लड़ रही होती हैं। गाय और सूअर का, लाठी और फूल का, जूते और छेने के रसगुल्ले का, बंदूक और कैडबरीज की गोली का फर्क खत्म हो जाता है। गोधरा सलीम चिश्ती की मजार बन जाता है। गोवा से उठे भगवा स्वर हरे-हरे नजर आने लगते हैं। चांद का मुंह टेढ़ा और सूरज का सातवां घोड़ा आंखों के सामने तैरने लगते हैं। अटल जी राष्ट्रीय झंडे के तीसरे कलर पर कुर्बान रहते हैं। बगल में खड़ा कोई विधर्मी दांतों को कंदरा से चार फुटआगे निकाले होता है। किसी मौलवी का और अटल जी का गला एक-दूसरे मेें ऐसे फंसा होता है जैसे ये दुनिया हो या वो दुनिया हम साथ न छोड़ेंगे। हां, बॅाब, टीवी पर तो आगे के भी दृष्य होते हैं और साथ में डायलाग भी। हे-हे-हू-हू-ही-ही के बाद अरे अब तक कहां थे मेरी जान के दुश्मन के उच्चारण के बाद फिर एक ठहाका। चैनली, यह राजनीति जो न करा दे। आमने-सामने की खिड़की पे खड़े हो लुच्चई की सीमा पार कर चार साल दस महीने एक दूसरे को गरियाने वाले एकाएक गुलाबजामुन की प्लेटें लिये एक और, ऐसे नहीं चलेगा, डायबटीज हो आपके दुश्मनों को, भाभी जी आप इनका ख्याल नहीं रखतीं, अले-अले मुन्ना कितना बड़ा हो गया जैसी सितार और तबले की जुगलबंदी दो महीने चलती है। अगला दूसरे की दाढ़ी खुजाता है तो पिछला अगले के बाल सहलाता है। अच्छा बॅाब, अगर भ्रूण टेस्ट किसी अनाड़ी के हाथों हुआ और पोते की जगह पोती जन्मी तो? फिर तो वही हजार साल से गूंज रही बबूल के कांटों जैसी ललिता पवार के मुंह से निकलीं आवाजें-कुलच्छनी, जनमजली, मनहूस के पैर पड़ते ही हरा-भरा घर सांय-सांय करने लगा और गोधरा भी फिर चमकने लगता है शमशीर की तरह।
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