मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

वर्दी वाले सूरदास

राजीव मित्तल
शेफाली जरीवाला (कतई काल्पनिक नाम नहीं) और बाबू ज्योतिर्गमय (नाम शुद्ध काल्पनिक) में समानताएं-दोनों फोटोजेनिक हैं, दोनों जन-जन के लिये बने हैं और दोनों ही लता ताई के गाए तीन दशक पुराने गीत ‘कांटा लगा’ से सम्बद्ध हैं। मादाम जरीवाला इस गाने के रीमिक्स में बदन आड़ा-तिरछा कर अमर हो गयीं तो अपने ज्योतिर्गमय बाबू जहां चार यार मिले, वहीं तानपूरा या खड़ताल या कुछ भी बजा कर कांटा लगा की ही धुन पर ‘माता लगा बेड़ा पार’ की तान निकाल अपने और सुनने वालों के दोनों लोक सुधारने में लगे हैं। अब जरीवाला को भूल ज्योतिर्गमय पर ध्यान केंद्रित करें क्योंकि तभी इस चरिμा को उभारने और निखारने में सहूलियत होगी। महाशय इस देश की अति महत्वपूर्ण सेवा से जुड़े हैं। उन्हें देख कर किसी जमाने में हाईस्कूल की हिन्दी की किताब में अपनी रचनाओं के साथ अपनी तस्वीर समेत छपे तुलसीदास-सूरदास वाला भ्रम अक्सर हो जाता है, भले ही बावर्दी हों। और जब वर्दी उतार अपनी पर आ जाते हैं तो कई रत्नाकर वाल्मीकि बनने की दरख्वास्त पकड़ाने दो एकड़ में फैले सरकारी आवास के गेट के बाहर खड़े नजर आते हैं। ऐसा अक्सर होता है, पर उसी तारीख को उन्हीं में से कोई रत्नाकर बड़ी वारदात कर बैठता है, तो पूरा इलाका दंडकारण्य सरीखा दिखने लगता है। हर तरह के आग्नेयास्μा को अंगुली पर नचाने में माहिर महाशय जी के हाथ लय के साथ धुन निकालने वाली कोई भी चीज लग जाए, तो बस सारा कामधाम छोड़ अनूप जलोटा जी की बिरादरी में शामिल हो जाते हैं।
जीवन की इस सुनहरी वेला में ज्योतिर्गमय बाबू के सार्वजनिक रूप से कीर्तनिया हो जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण है ऊपर वाला और नीचे वाला। इस देश की सरकारी सेवा में एकाध पद ऐसा भी है, जो जाता तो नीचे से ऊपर की ओर ही है, लेकिन उस पर बिठाया गया व्यक्ति यही सोच-सोच कर माथे पर भभूत लगाने को मचलने लगता है कि मैं यहां क्यों हूं, क्या करने के लिये हूं। गौरतलब है कि क्या से क्या हो गया वाली थीम ने ही राजू गाइड को ईश्वर से मिलवाया था।
सूμा बता चुके हैं कि किसी अति महत्वपूर्ण बैठक में बॉस ने देखते ही सवाल दाग दिया-अरे ज्योतिर्गमय, आप यहां कैसे? मातहत भी नहीं चूकते- सर, आपने कैसे तकलीफ की? ऐसे में वर्दी उतार कर काया को गेरुए वस्μाों से ढंकना, माता लगा बेड़ा पार वाले कैसेट में अपनी आवाज सुनना, मंचीय कार्यक्रम में हजारों की संख्या में जमा हुए दर्शकों का आयोजकों से पूछना कि महात्मा जी कहां से पधारे हैं और भक्तजनों का बात-बात पर पैरों में लोटना लोक-परलोक का फर्क मिटा देता है। वर्दी को हमेशा के लिये टांग देने को जी चाहता है, जो कर्तव्य निष्ठा की भावना के चलते संभव नहीं।

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