बुधवार, 8 दिसंबर 2010

सुन मेरे बंधु रे, सुन मेरे बचवा

राजीव मित्तल
चैनली तलाशते हुए जिस घर के सामने पहुंची, वहां जोर-जोर से किसी पंडित के जाप करने की आवाज आ रही थी। अफरातफरी का सा आलम था। तभी एक सज्जन उसकी तरफ लपके और बोले आप ही ने दो दिन पहले इंटरव्यू के लिये फोन किया था न! मैं अपने बेटे को विदा कर दूं, तब तक आप बैठें। उन्होंने वहीं से किसी महिला को आवाज लगायी। सुर बता रहा था कि पत्नी को बुलाया है। अंदर से सूजी आंखें लिये एक महिला आयी और भर्राये गले से पूछा-क्या है? अरे भई, तांगा आ गया है पुत्तन की तैयारी हो गयी? सब सामान रख दिया न? बहू से विदा ले रहा है। चैनली ने कनखियों से सामने वाले कमरे की तरफ देखा तो वहां एक युवती सिसकियां ले रही थी। बार-बार उसके हाथ एक लोहे के संदूक में रखे कपड़ों को टटोलते तो कभी संदूक के ढक्कन को दबोचते। चैनली रिटायर्ड क्लास टू अफसर सेवक राम गर्ग से पूछ बैठी-क्या बात ह,ै आपका कोई बेटा आर्मी में है? जम्मू-कश्मीर भेजा जा रहा है उसे? नहीं, एक ही है और वही चुनाव ड्यूटी पर जा रहा है पीठासीन अधिकारी होकर। तीन दिन से घर में रोना-धोना मचा है। उसकी मां को तो चार बार गश आ चुका है। कल शाम से महामृत्युंजय का जाप चल रहा था। तभी पुत्तन लोहे का संदूक लेकर बाहर की ओर लपका। पीछे-पीछे मां के हाथ में टिफिन और पत्नी के हाथ में पूजा की थाली थी। बेटे ने मां-बाप के पांव छुए और पत्नी की तरफ हसरत भरी नजरों से देखा। डबडबायी आंखों से पति की आरती उतारती हुई वह ससुर जी से बोली-पिताजी आपने इन्हें सब कुछ समझा दिया है न? अरे तुम और तुम्हारी सास तो बस रोना-धोना ही मचाना जानती हो, मैं तीन दिन से इसे यही तो समझाने में लगा हूं कि अब नहीं रहा हमारा वाला जमाना, कोई कुछ भी करे तू करने देना, पीठासीनी को डालना कुएं में। ये चुनाव तो मरगये अब हर समय सिर पे सवार रहते हैं, कोई जान थोड़े ही न गंवानी है। मैंने भी कभी मोहनलाल गंज में चुनाव कराया था, हंसते खेलते पिकनिक मनाते। क्या दिन थे आह, और अब! हे ईश्वर तू ही रक्षा करना। पुत्तन तांगे में बैठ चुका था। महरी के शंख फूंकने की आवाज आ रही थी। पुत्तन को विदा कर सब अंदर आ गये। तब तक चैनली ने संजू से कैमरा फिट करा दिया था। गर्ग साहब माथे पे हाथ रखे बुदबुदाते हुए पता नहीं किस को कोस रहे थे। चैनली ने माइक आगे किया-गर्ग साहब, आप बताएंगे कि तब और अब में क्या फर्क आया है चुनावों में? देखो, अब के बारे में तो मैं कैमरे पर कुछ बोलूंगा नहीं। सारी दुनिया जानती है। हां, अपने समय के बारे में जरूर बता सकता हूं। नदी के किनारे बसे गांव में मेरी ड्यूटी पड़ी थी। एक ट्रक पर सवार थे हम चार-पांच बूथों के लोग। गाते-बजाते गये थे। रास्ते में खेतों से गन्ने भी तोड़े ट्रक रुकवा कर। जिस गांव में अगले दिन चुनाव होना था, वहां पहुंच कर मुखिया को बुलवाया। हाथ जोड़े खड़ा रहा। मेरे क्रू के आठ-दस लोगों की बड़ी आवभगत की थी उसने। फिर शाम को नदी किनारे टहलने गये और वहां की रेत में उगे खीरे-ककड़ी-खरबूजों का भोगलगाया। सब नदी में नहाये। रात को पेड़ के नीचे हमारे लेटने का इंतजाम था। दो बंदूकधारियों के बीच में लेटा था मैं। सुबह सब तैयार होकर मतदाताओं के इंतजार में बैठ गये। गांव में जगह-जगह ढोलक बज रही थी, औरतें गा रही थीं, बकरियों के पीछे बच्चे दौड़ रहे थे। थान पे बंधी गाय-भैंस भी खुशी के मारे ठुमक रही थीं। वोट डालने वालों ने आना शुरू कर दिया। कोई लाइन नहीं, कोई झांय-झप्प नहीं। मैं चारों ओर खिले गुलमोहर और अमलतास को देखने में मशगूल था। कोई फिल्मी गाना भी गुनगुना रहा था शायद। हर घंटे में चाय बन कर आ रही थी, साथ में कुछ खाने को भी। कब शाम के पांच बज गये पता ही नहीं चला। तभी आंसू बहाती अफसराइन आ गयी-फिर तुम मोहनलालगंज वाला किस्सा ले के बैठ गये? तुमने तो मस्ती कर ली। मेरे बेटे को तो भेज दिया न मौत के मुंह में नरकटियागंज। ऊं-ऊं-ऊं-कह रहे थे मुख्यमंμाी से सिफारिश लगवाऊंगा-ऊं-ऊं-ईं-ईं-कितना कहा था कि इतना कमाये हो, बेटे को कोई धंधा करा दो (एक जोर की हिचकी) पर तुम्हारे कान में तो जूं तक नहीं रेंगी। उस कम्बख्त श्रीवास्तव को कह कर लगवा दिया बैंक में कि दहेज अच्छा मिलेगा। अब चाटो दहेज को लेकर। हाय मेरो पुत्तन-मेरा बेटा ऊं--ऊं--हुच्च। और मिसेज गर्ग को पांचवी बार भी गश आ ही गया।