राजीव मित्तल
आंध्र के दो हजार मछुआरे सुनामी तूफान से अपनी जान इसलिये बचा सके क्योंकि उनके गांव में ताजा-ताजा बना पुल था, लेकिन बिहार में राजधानी से केवल 50 किलोमीटर दूर पालीगंज और वहां से 15 किलोमीटर दूर मौरी गांव तक पहुंचने के लिये नदी में कपड़े उतार कर घुसना पड़ेगा क्योंकि उस पर पुल नहीं है। कभी था भी नहीं। जी हां, यह वही मौरी गांव है जो केवल उग्रवादियों के लिये मुफीद है, क्योंकि उन्हें कत्ल करने और उसके बाद के आयोजन के लिये डामर की सड़क की जरूरत नहीं होती। रास्ता जितना ऊबड़-खाबड़ हो, गांव वालों के लिये बच के भागने और कत्लेआम के बाद पुलिस के वहां पहुंचने में जो मुश्किलें आती हैं, वह खून बहाने के बाद उसका लुत्फ उठाने के लिये काफी है। बिहार में सुनामी या उस जैसा ही कुछ आये या न आये, जिस रास्ते निकल जाइये, वहां की सड़क और उस पर बने पुल-पुलिया बाहें फैलाये उछलते हुए मिलेंगे। ऐसी किसी μाासदी को कतई निराश नहीं होना पड़ेगा, क्योंकि भूकम्प आये बिना ही उन रास्तों पर हर वाहन गिरता-पड़ता नजर आता है। एक पुलिया पार कर ली तो हाथ ऊपर की तरफ उठते हैं कि लौटती बार भी इसी तरह पार करा दीजो भगवन। मौरी गांव के लोग मछुआरे तो हैं नहीं कि समुद्र ने तांडव दिखाया तो कहीं और भाग कर बस जाएंगे। भागेंगे कहां उन्हें हर हाल में यहीं रहना है अब अपनी मौत मरें या किसी की गोली से लाश बनें। लाशें उसी सड़क से होकर मुर्दाघाट जानी हैं जो कहीं नहीं है, नदी बांस-बल्ली पकड़ कर ही पार करनी है। साल के बारहों महीने औरतों के रोने और सिसकियां भरने का इतना शानदार इंतजाम और कहां मिलेगा।कितनी मजेदार बात है कि बिहार का एक बड़ा हिस्सा भूकम्प के जबरदस्त लपेटे में है और जिसके साथ उसका बहुत अपनापा नहीं है, वह नक्सली मार की जद में है। लेकिन भेदभाव कोई नहीं-हर तरफ भूकम्प और नक्सलियों को ललचाने वाली वही सड़कें और वही पुल-पुलिया। सीतामढ़ी हो या मधुबनी, पूर्णिया हो या आरा सारे रास्ते धसके हुए हंै, वहां भूकम्प और कितना बिगाड़ लेगा, जो सामने है उसी से जी बहलायेगा। और नक्सली, उनके लिये फिलहाल वो सात जिले बहुत हैं जहां बगैर भूकम्प के ही सब उजड़ा हुआ है। खून बहाने को उम्दा इलाका। बाकी बिहार तो चेंज के लिये है। आंकड़े बताते हैं कि बिहार में हर पचासवां साल भूकम्प के लिये आरक्षित है। सुनामी और भूकम्प की सारी प्रचंडता समुद्र ने झेल ली। विनाश का कारण बनीं उसकी लहरें, जो सामने पड़ा उसको लील गयीं, पर बिहार के जो इलाके बेहद संवेदनशील हैं वहां किसी के बचने का है कोई रास्ता? है कोई जगह जहां भागा जाए और भागा भी जाए तो कैसे-इसका जवाब है 2005 के मार्च में बनने वाली सरकार के पास, पर मुश्किल तो यह है कि पहले उसके सामने यह मुद्दा तो हो। जब डोर होगी पतंग तो तभी उड़ेगी न!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें