रविवार, 9 अक्तूबर 2011

जय जवान जय किसान



राजीव मित्तल

दो अक्तूबर को लालबहादुर शास्त्री का भी जन्मदिवस है। लेकिन दिल से या बेदिल से याद महात्मा गांधी ही किये जाते हैं। जेल से ले कर चैनलों पर या स्कूल-कॉलेजों में या चौराहों पर लगी उनकी प्रतिमा की साज-सफाई कर सालाना जापकर्म जैसे-तैसे निपटा ही लिया जाता है। जहां तक शास्त्री जी का सवाल है, हिन्दी के कुछ अखबारों में गांधी जी का फोटो अगर पहले पेज पर, तो शास्त्री जी को कहीं अंदर औपचारिक रूप से टांक दिया जाता है। खैर, शास्त्री जी का महत्व इसलिये नहीं था कि वे देश के प्रधानमंत्री बने। वो तो कई सारे हो लिये, लेकिन 52-53 साल की ऊम्र और उनसे ऊपर वाले जरा सन् 64 की 27 मई को जवाहरलाल नेहरू के न रहने के बाद के क्षण याद करें। क्या उस वक्त ऐसा नहीं लग रहा था कि सारा देश अनाथ हो गया है। नेहरू के बिना भारत की कल्पना भी किसी ने की थी क्या। हर उम्र का भारतीय

उस दिन को अभागा मान बिलख-बिलख कर रो रहा था और यही सोच रहा था कि अब क्या होगा। हर तरफ 1948 की तीस जनवरी की शाम जैसा मंजर नजर आ रहा था। लेकिन 1948 की तीस जनवरी की शाम नेहरू हमारे साथ थे। गांधी के बाद नेहरू..बस। उसके बाद शून्य। गांधी और नेहरू के बाद इसी शून्य को भरने वाले व्यक्ति का नाम लालबहादुर शास्त्री था।

उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू के महीने कैसे रहे होंगे यह तो याद नहीं, लेकिन यह जरूर लगने लगा था कि नेहरू विहीन भारत समुद्र की लहरों को चीरते पोत की तरह डगमगाये बिना चल रहा है। 1965 का आधा हिस्सा पार होते ही पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया। फिर याद करें वो समय और उन दिनों का मिलान करें 1962 के सर्द दिनों से, जब भारत जूझ रहा था चीन से। तब नेहरू हमारे रहनुमा थे। लेकिन सब तरफ किस कदर अवसाद का माहौल छाया हुआ था। वह अवसाद और उसकी पीड़ा फूट रही थी कैफी आजमी और कवि प्रदीप और न जाने कितने कवियों और लेखकों की कलम से। ....ऐ मेरे वतन के लोगों....गा कर देश भर को लता मंगेशकर की आवाज रुला रही थी। नेहरू जी भर आयी आंखें पोंछ रहे थे। उस पीड़ा को सेल्यूलाइड पर उतार रहे थे चेतन आनंद। उस जैसी पीड़ा का अहसास एक पल को भी हुआ था 1965 में पाकिस्तान से युद्ध करते समय? आजादी के बाद पहली बार सन् 65 के अगस्त और उसके बाद के पांच महीने एक साथ कई धाराओं में भारत और भारतवासियों को जोश के ज्वार से भर रहे थे।

कुल मिला कर डेढ़ साल का शास्त्री जी का प्रधानमंत्री वाला समय मीठी याद बन कई सारी तहों के नीचे दबा पड़ा है। दर्द यही है कि युवा पीढ़ी नहीं जानती और न कभी जान पाएगी उन डेढ़ साल के बारे में। किसी परीक्षा में इस सवाल का जवाब शायद कोई दे दे कि जय जवान जय किसान का नारा किसने बुलंद किया था और हर सोमवार को सारा देश किसके कहने पर एक ही वक्त भोजन करता था ताकि हमें किसी के सामने झोली न फैलानी पड़े।