रविवार, 9 अक्तूबर 2011
भुनेगा तो तब ना, जब दाना हो
राजीव मित्तल
देश की दो प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में इन दिनों झनक-झनक पायल हो रही है। लेकिन न सुर है न ताल है न घंघरू हैं। मुद्दा है अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री कौन होगा। भारतीय
जनता पार्टी के ख्वाब ज्यादा उछाल मार रहे हैं, मानो प्रधानमंत्री पद सामने रखा हो। इसीलिये पार्टी में रार भी ज्यादा ही मची हुई है, जिसे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने और भी भड़का दिया है। पहले सुप्रीमकोर्ट से तथाकथित राहत और राहत मिलने की खुशी में शाही किस्म का उपवास उनके सपनों को चार चांद लगा रहा है। लेकिन यही चार चांद लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की रातों को स्याह बनाने पर तुले हैं। मोदी के उपवास स्थल पर पार्टी नेताओं का जो जमावड़ा मनभावन नजर आ रहा था, कुछ ही दिन बाद दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मोदी की गैरमौजूदगी ढोल बजा रही थी कि भारतीय जनता पाटी में प्रधानमंत्री पद को लेकर ताकधिन्नाधिन शुरू हो गयी है। जो हाथ उपवास स्थल पर मोदी के होठों पर जूस के गिलास नवाज रहे थे, वो उन पर मुट्ठियां तानने में लगे हुए हैं।
खेल की शुरुआत हमेशा की तरह बैठे ठाले चुनाव नजदीक जान आडवाणी जी की रथयात्रा के ऐलान से हुई। उनकी रथयात्रा हमेशा कुछ ऐसी करतबी होती है कि और दलों में गायत्री मंत्र का जाप गूंजता है, तो उनकी पार्टी के नेताओं का अमाशय कमजोर होने लगता है। वैसे इस बार की रथयात्रा एक तरह से नख और दन्त विहीन है। बना भले ही लिया हो, लेकिन भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने से कुछ हासिल होना नहीं उन्हें, क्योंकि कई महीनों से अन्ना हजारे की अनामिका पर उछल रहा है वो। फार्मूला -1 रेस जैसा चार्म भी नजर नहीं आ रहा किसी को उनकी रथयात्रा में। न खुद पार्टी में न पार्टीजनों में न जनता में कोई उत्साह। अगले आम चुनाव में पार्टी क्या हासिल करेगी, इसके बारे में अभी तो सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि चमत्कार शब्द न आशंका से जुड़ा है न संभावना से।
सत्तारूढ़ गठबंधन की आगुआई कर रही कांग्रेस का हाल खुद उसको भी पता नहीं। 2009 के चुनाव में खासी सफलता हासिल करने के बाद उसको प्रधानमंत्री तो पिछली पफॉर्मेंस के आधार पर बैठे-बिठाए मिल गये थे, इस बार कुर्सी उनको काट रही है या उन्हें कटवाया जा रहा है या वो खुद कुर्सी से बेजार हैं, यह समझ से बाहर है। सरकार चलाने के लिये मनमोहन सिंह कौन सा जरूरी पुर्जा हैं यह बात कोई मैकेनिक या इंजानियर भी नहीं बता पाएगा। पार्टी की तरफ से मुंह खोलने वालों की बातों से जाहिर हो रहा है कि ढाई साल बाद वाले चुनाव में युवराज को सत्ता सौंप दी जाएगी। पहले दिग्विजय सिंह बोले...अब दादा भी बोल रहे हैं। दिग्विजय का काम कई सालों से बोलने का ही रह गया है, तो बात आई-गई टाइप लगी, लेकिन प्रणव मुखर्जी के बोलने में ठोसपन और अवसाद दोनों थे। सन् 84 में राजीव गांधी और अब राहुल गांधी यानि उनकी हालत आडवाणी ही जैसी। सरकार के कामकाज को कैसी भी संभावना से जोड़ा जाए, तो धूल उड़ती दिखायी पड़ेगी।
अब एक नजर पूरे राजनीतिक हालात पर डाल लें। 2009 में दोबारा सत्ता में आए अतीव उत्साही कांग्रेसी गठबंधन में जैसे हर कोई अपनी कब्र खोदने में लगा हुआ है। बेताल की तरह विक्रम के कंधों पर लदा हर घोटाला यही पूछे जा रहा कि अब और क्या करना है जल्दी बता, नहीं तो तेरा सिर काट दूंगा। इस वजह से हर कोई अपना सिर अपने हाथ में लिये है..तू कौन मैं खामखां वाला हाल।
भाजपा का फीलगुड सिरके की तरह महक रहा है। उसके पुरोधा आरएसएस ने अपनी छवि से कोई समझौता नहीं किया है। लॉटरी के नम्बर मटके से निकालने का काम उसी का है। जिस दिन जिसका नम्बर आ जाए..कुछ समय की जय-जयकार..कुछ समय बाद फिर महक मार रहे सिरके वाले जार में। तीसरे मोर्चे के अगुआ वामपंथी सब कुछ गंवा कर आईसीयू में ही पड़े थे, अब बाहर बरामदे में डाल दिये गये हैं। उस मरीज जैसा हाल, जिसके घरवालों के पास नसिंगहोम होम का बिल जमा करने को पैसे न हों। बाकी दल अपने मोहल्ले में ही जागरण करवा कर पड़ौसियों की नींद हराम कर रहे हैं।
देश का यह राजनैतिक परिदृष्य देश की आजादी के बाद पहली बार देखने में आ रहा है कि किसी पार्टी के पास करने को कुछ नहीं है। इसीलिये रोटी-बेटी-खेती-किसानी-स्वास्थ्य-शिक्षा-लोकपाल-भ्रष्टाचार-सदाचार -मिल-मजदूर-सावन-भादों -बाढ़-अनावृष्टि-चुनाव-वोट-उम्मीदवारी...न जाने कितने मुद्दों को नन्ही सी जान के हवाले कर दिया गया है। और मतदाता इस कदर बेजार है कि कहीं राष्ट्रीय सरकार का मुंह न देखना पड़ जाए, जिसमें हर पार्टी का करछुल कढ़ाई में घूमता है । यानि एक ऐसी सरकार जो सोमवार का व्रत रख सावन तो किसी तरह काट ले, पर भादों की एक बौछार सब कुछ बहा ले जाए। इसी तरह क्वार की खुशियां कार्तिक को गमगीन बनाएं।