मंगलवार, 8 नवंबर 2011
साहेब की कविता
राजीव मित्तल
एक सरकारी दफ्तर जैसा कुछ....ऐंडी-बेंडी कुर्सियां....तीन टांग की मेजें....फटहे पोंछा जैसा कालीन...यहां-वहां पड़े हत्था टूटे प्याले, जिनके पेंदे की बची चाय में कुछ मक्खियां गोता लगा कर शीर्षासन कर रहीं तो कुछ चटखारे ले कर भन भना रहीं। हॉलनुमा दड़बे में एक और दड़बा, जहां साहब बैठते हैं। शायद बैठे भी हैं...क्योंकि स्टूल पर बैठा चपरासी बीड़ी नहीं पी रहा, खैनी दबाये ओंघा रहा है। साढ़े चार कुर्सियों पर पांच मर्द बैठे हीहीहीही कर रह रहे, सामने फाइलों का अम्बार..... जिनमें से सड़े अचार की खुश्बू आ रही है। पीए टाइप युवती टाइपराइटर पर उंगलिया चलाते जिमिकंद का हलवा बनाने की विधि सोच रही । उम्रदराज महिला स्वेटर बिनते हुए पति की बाहर निकलती तोंद पर कुढ़ रही । तीसरी.... मां आनन्दमयी की मुद्रा में। अचानक साहब ने दरवाजा खोल बाहर झांका, स्टूलिये ने लुढ़कने से बचते हुए मुंह में भरी सुरती गटक ली। माहौल अंटेशन की मुद्रा में..........आगे..........
साहब.....आप सबका काम खत्म हो गया तो शुरू किया जाए आज का कार्यक्रम
सबके मुंह से एक स्वर में हेंहेंहेंहेंहें ......पति की तोंद को किनारे कर वो बोलीं..सर, पिछली बार आपने जो कविता सुनायी थी न.....
भटकटैया के पेड़ पर वो फुदक रही थी
मैं हवा में गोते खा रहा था....
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और सर... आखिर में ....
.........राधे राधे किशन किशन ....
तो कमाल का था... यही गुनगुना रही थी अभी ...
मामला हाथ से निकलता देख टाइपराइटर पर धरे हाथ ने जुम्बिश ली......कुछ कुछ कोयल जैसी बोली....सर...
आज तो आपको फिर वही कविता सुनानी पड़ेगी...प्लीज सर...
हिन्दु मुस्लिम सिख ईसाई
आपस में हैं भाई भाई
सर, इस दीवाली पर मढ़वा कर ड्राइंगरूम में टंगवाई है पापा ने....
साहब की आवाज में खुरदुरापन काफी नीचे आ चुका था.....आज तो आप सब की तरफ से कुछ होना चाहिये था....
चलिये.... जब आप इतना जोर दे रही हैं तो.........!!!!
यह कविता मैंने 26 जनवरी पर होने वाले अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के लिये लिखी है, पहले आप सब सुनें......उन्होंने चमड़े के ब्रीफकेस से चमड़े की जिल्द वाली डायरी निकाली.....ऊन के गोले झोले में ठूंसती वो बोलीं.....सर प्लीज...एक मिनट....कागज-पेन निकाल लूं .....
सभी मर्द पहले ही टाइपराटर वाली से थोड़ा परे हट कर आसन जमा चुके थे.....
यह कविता मैंने लालकृष्ण आडवाणी, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव को ध्यान में रख कर लिखी है। हमारे मुख्य सचिव को बहुत पसंद आयी है। शायद इस बार कोई केंद्रीय पुरस्कार मिल जाए। हां तो सुनें......
काला धन काला धन
विदेशों में जमा काला धन
काला धन काला धन
लेकिन..................
हम धन को काला क्यों कहें
हम क्यों कहें काला धन
काला होता है मानुष मन
मानुष मन मानुष मन
फिर क्यों मच रहा शोर
क्यों धन को काला करने पे जोर
जब आएगा कभी हमारे पास
शुभ्र सफेद चीनी के दानों की माफिक
मीठा कर देगा हमारा तन मन
काला धन काला धन
कमाल है सर-कमाल कर दिया सर-तारीफ के लिये शब्द नहीं मिल रहे हैं सर.....स्वेटर वाली का रुमाल आंख पर था...
तभी रुंधे गले से पीए ने कहा....सर..मेरे लिये तो यह राष्ट्रगान से कम नहीं..सर..प्लीज...आप तो मुझे अपनी डायरी दे दीजिये...मैं आपकी सारी कविताएं फेसबुक पर डालूंगी।
साहब जी लसलसाए...हां हां क्यों नहीं...लेकिन 26 जनवरी के बाद...
साहब ने घंटी मार कर चपरासी को बुलाया...रामखेलावन के यहां से समोसे ले आओ....चाय सामने बोलते जाना.....चपरासी दरवाजे तक पहुंचा ही था कि स्वेटर वाली बोली...वो चीनी कम डालता है....आज मीठी बनाए.....अब तक पूरी तरह बौरा चुका छोटेलाल बुड़बुड़ाया...घुइंयां बनवाऊंगा मीठी चाय...ससुरों को पता नी क्या हो जाता है महीने के आखिरी दिन....