बुधवार, 27 जुलाई 2011


मात्र तीन मुलाकात..पहली याद नहीं

राजीव मित्तल

लेखक...प्रकाशक.....चाचा जी के दोस्त अशोक अग्रवाल.......हापुड़ की धकाधक यात्राओं ने उनके साथ चचा-भतीजा वाला फालतू का सा कनेक्शन जोड़ने का कोई मौका ही नहीं दिया.....बचा-खुचा अपने साथ हमेशा से लगा छुई-मुईपन का जाला उनकी लायब्रेरी ने झाड़ दिया.....उनको भी इस जूनूनी का लफाड़ियापन ज्यादा ही पसंद आ गया..फिर एक बाद एक कई राजदारियों ने दोनों को उस जगह पहुंचा दिया....कि जब नींद की कई गोलियां निगलने के बाद भी सांस नहीं टूटी तो ...कई सारी शर्मिंदगियों से बचाने को.........उन्हें ही लखनऊ भेजा गया था...और तीन दिन का वो साथ गजब का रहा था।

फिर उन्हीं के सौजन्य से एक दिन एक ऐसी मुलाकात.. जिससे जुड़ा कैसे-कहां-क्यों और कब वाला कोई सन्दर्भ याद नहीं........तिब्बत की बौद्ध भिक्षुणी सी कद-काठी.....हिमा कौल.......तो तुम हो...तुम्हारे बारे में सब पता है मुझे......कब सुना रहे हो हेमंत कुमार के गाने... खुद ही से बात कर रही हो जैसा संबोधन ....इसके चलते दो-तीन बार टोका भी गया...मैं तुम्हीं से बात कर रही हूं.....वो साथ कितनी देर का रहा .....यह भी याद नहीं...

कुछ साल बाद चंडीगढ़ में....सब लखनऊ गये हुए थे....ऑफिस में फोन आया...अशोक जी का....हिमा को चंडीगढ़ में कुछ काम है....तुम्हारे पास ही ठहरेंगी.....हाथ से तोते उड़ने जैसी कोई बात नहीं थी...पर उड़ गए......क्योंकि ऐसी मेजबानी पहले कभी की नहीं थी......बहरहाल हिमा दोपहर को 20 सेक्टर वाले घर में थीं....उनका काम दूसरे दिन होना था.....शाम को छह बजे उन्हें पड़ोस के हवाले कर ऑफिस चला गया....दस बजे तक लौट आया...हिमा का खाना उन्हीं के यहां, जिनके यहां छोड़ गया था....दूसरी मुलाकात में ही इतना नामाकूल रवैया!!!!!!!....वो कहां से मेहमानी का लुत्फ उठातीं जब मेजबान ही इस कदर बेहुदा मिला हो.....रात को उनके सोने का इंतजाम किया.....उनको कुछ कहने-सुनने का मौका ही नहीं दे रहा था...हो सकता है वो कई सारी बातें करना चाहती हों...रात को बाहर टहलने जाना चाहती हों...आइसक्रीम खाना चाहती हों.....लेकिन दादागिरी दिखाते हुए सोने का हुक्म सुना दिया...राजीव....आज तो कोई गाना सुना दो...धत्...सो जाइये..कह कर लाइट बुझा दी और बाहर वाले कमरे में किताब लेकर लेट गया....सुबह नाश्ता ठीकठाक करा दिया...हालांकि सब कुछ बनाया उन्होंने ही...अब.....आपका क्या प्रोग्राम है...टालने की गरज.....तुम मेरी वजह से अपना रुटीन मत बदलो...मुझे उस दफ्तर तक छोड़ दो, जहां मुझे काम है...अपने चेहरे पर बला टली का भाव....

तीसरी मुलाकात....फिर कई साल बाद....उस बार हापुड़ रुकते हुए दिल्ली का प्रोग्राम...हापुड़ में अशोक जी ने बताया...हिमा तुमको बहुत याद करती हैं....फलाने दिन श्रीराम सेंटर में उनकी शिल्प कृतियों की प्रदर्शनी है..तुम आओगे तो अच्छा लगेगा हिमा को.....कड़कड़ाती ठंड में पहुंच भी गया श्रीराम सेंटर...हॉल में अशोक जी..हिमा..उनकी बहन और बाबा नागार्जुन मिले...हिमा बहुत लगाव से मिलीं...उन्होंने अपनी बहन से मिलवाया...बाबा तो हापुड़ आते ही रहते थे...अशोक जी ने कहा..बाबा..यह राजीव..प्रभात का भतीजा ...तो बाबा ने फौरन दोस्ती कर ली....हिमा के शिल्प को पहली बार देखा...इस विषय में कोई जानकारी न होने के बावजूद बहुत अच्छा लग रहा था...खास कर हिमा के चेहरे पर की मुस्कान और बेहद अपनापन...काफी देर उन सबके साथ रहने के बाद रुखसत हो गया...तीन महीने बाद ही बीआईटीवी ने फिर दिल्ली का मुंह दिखा दिया...

बच्चों को सेंट्रल स्कूल में एडमिशन कराना था...तो कई बार फोन पर हिमा से बात हुई। उन दिनों हिमा केन्द्रीय विद्यालय में ही थीं..फोन पर ही हर बार यह भी कि कब मिल रहे हो...फिर एक दिन पंचशील में अशोक जी का फोन आया....मैं यहां आया हुआ हूं...इस सनडे को आओ न हिमा के यहां....बहुत मिलना चाहती है तुमसे......लेकिन जाना रह गया...दिल्ली में पूरे सात साल गुजार कर भी मिलना नहीं हुआ.....फिर मुजफ्फरपुर...वहां से जबलपुर....वहीं से एक दिन काफी दिनों बाद अशोक जी को फोन किया....बहुत खफा थे...दो-तीन पेटेंट वाक्य बोल कर मना लिया...तब खुल कर बात हुईं...हिमा का जिक्र आया....पता चला वो बिस्तर से लग गयी हैं...कोई असाध्य बीमारी...जिसमें शरीर का एक-एक अंश दम तोड़ता है....

जबलपुर से मेरठ आ गया...ज्ञान जी ने जबलपुर से पहल के दो अंक भेजे ...दूसरा डाक विभाग ने नहीं दिया...उन्होंने फिर भेजा....यह... पहल 90 आखिरी अंक था....उसके मुखपृष्ठ पर हिमा का बनाया शिल्प.....हिमा के कला संसार की जानकारी और हिमा के बारे में सब कुछ...... पहल के उसी अंक से कुछ यहां दे रहा हूं.....हिमा पर यह आलेख कुबेर दत्त ने लिखा है....

मई 2008 में त्रिवेणी कला संगम परिसर में शिल्पकृतियों की एक अनूठी प्रदर्शनी चल रही है...कलाकार हैं हिमा कौल...वो दिन भी थे जब हिमा कौल को उस परिसर में शिल्प-रचना करते वक्त देखता था। अपने काम में तल्लीन..चेहरे पर शान्ति और हल्की सी स्मित लिये एक गोरी चिट्टी कश्मीरी लड़की...2004 में किसी दिन हिमा को लगा कि उसके हाथ काम करने से इंकार कर रहे हैं..अशक्त हो रहे हैं...उंगलियों की पकड़ कमजोर हो रही है..यह सिलसिला रफ्तार पकड़ता गया...पूरे शरीर ने साथ छोड़ दिया..हिमा का कलाकार तो जीवित रहा, पर उसकी कला को रूप-स्वरूप देने वाली देह लुंजपुंज हो गयी...परवश हो गयी...
80 के दशक में विनोद कुमार श्रीवास्तव का परिचय हिमा से हुआ था अशोक अग्रवाल की मार्फत। प्रथम परिचय के दिन हिमा त्रिवेणी कला संगम के बेसमेन्ट में गीली मिट्टी से बावस्ता थी। वह शिल्प निर्माण की प्रक्रिया में उलझी थी। विनोद जी को धीरे-धीरे हिमा के शिल्प में गहरी दिलचस्पी होती गयी। हिमा की कृतियां इतनी मुखर थीं कि उन्हें लगा कि जैसे वे बोलने लगी हों और हिमा के कलाकार की संवेदनाओं की गाथा सुना रही हों। विनोद को लगा-हिमा से अधिक उसकी आंखें बोलती हैं। आज भी ....जब कोई उससे पूछता है-कैसी हो? उसके फुसफुसाते कंठ से ध्वनि निकलती है--आनंद...आनंद। देह की भीषण पीड़ा, असहायता...परवशता...के बावजूद हिमा परम शांत दिखती है। यही नहीं...उसकी हंसी में एक उजास है।

फिर एक दिन कुबरेदत्त की कैमरा टीम त्रिवेणी में हिमा की कृतियों की प्रदर्शनी को शूट कर रही थी तो भारतीय रंगमंच की मशहूर हस्ती अल्का जी इब्राहिम वहां मौजूद थे। यह प्रदर्शनी अल्का जी ही की देन है। कैसे......एक दिन अल्का जी त्रिवेणी परिसर में टहल रहे थे कि उन्हें वहां लगे कुछ अनूठे शिल्प दिखे। पता चला कि कि वे हिमा कौल के हैं। अता-पता लेकर अल्का जी हिमा के घर गये और उसकी हालत देख हतप्रभ रह गये। यह जान कर कि अब कभी हिमा शिल्प निर्माण नहीं कर पाएगी, तरस खा कर नहीं, बल्कि शिल्प के बेजोड़पन से प्रभावित हो कर अल्का जी ने हिमा की तमाम कृतियां अच्छी कीमत दे कर खरीद लीं और फिर उनकी प्रदर्शनी लगायी।

पहल का वो अंक दो साल पहले का है। आज हिमा की फुसफसाहट भी शेष हो चुकी है। हिमा पर ये सब लिखते समय अशोक जी को फोन किया और हिमा के बारे में पूछा.....नहीं...अब कुछ नहीं बचा है.....बस सांसें चल रही हैं..

हिमा..मैं हेमंत को सुन रहा हूं....इस ख्याल के साथ कि जैसे तुमको सुना रहा हूं।