मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

शेल्फ

सखि की कविता

कब से तलाश थी

उन सबकी

लेकिन कोई पहचान बन पाती

पता नहीं कहां गुम हो गयीं सब की सब

न नाम.. न पता... न चेहरा

कुछ याद नहीं

याद थी तो बस एक शक्ल

बस.. वही मुझ से

पूछती...कहां हैं वो सब

मैं कहां तलाशूं

कैसे तलाशूं

बेचैनी में गुजरते दिन रात

सब कुछ अधूरा सा

उस दोपहर

उन तक पहुंचने को

पढ़ डाले सारे नाम

देख डाले

पता नहीं कौन कौन से चेहरे

मन में ये आस भी

मैं नहीं तो उनमें से

शायद कोई मुझे पहचान ले

छटपटाहट बढ़ती जा रही

तभी..नजरें मिलीं

तो ऐसे

जैसे

इस इंतजार में बैठी हों

कि कब मेरी अंगुलियां उनको छुएं

और कब सब

मेरी गोद में

दुबक कर

सुबकियां भरें