कब से तलाश थी
उन सबकी
लेकिन कोई पहचान बन पाती
पता नहीं कहां गुम हो गयीं सब की सब
न नाम.. न पता... न चेहरा
कुछ याद नहीं
याद थी तो बस एक शक्ल
बस.. वही मुझ से
पूछती...कहां हैं वो सब
मैं कहां तलाशूं
कैसे तलाशूं
बेचैनी में गुजरते दिन रात
सब कुछ अधूरा सा
उस दोपहर
उन तक पहुंचने को
पढ़ डाले सारे नाम
देख डाले
पता नहीं कौन कौन से चेहरे
मन में ये आस भी
मैं नहीं तो उनमें से
शायद कोई मुझे पहचान ले
छटपटाहट बढ़ती जा रही
तभी..नजरें मिलीं
तो ऐसे
जैसे
इस इंतजार में बैठी हों
कि कब मेरी अंगुलियां उनको छुएं
और कब सब
मेरी गोद में
दुबक कर
सुबकियां भरें