मंगलवार, 13 दिसंबर 2011
एपी सेन रोड
राजीव मित्तल
सर्दियों की वो अंधेरी शाम... चर्र रररररररररर.. जंग खाए लोहे के गेट की आवाज ...सामने लॉन...उसके पीछे पोर्टिको..पोर्टिको के पीछे बरामदा..उधर झांकना भी मत..तुरंत बाएं मुड़ लो....फिर बड़ा सा लॉन....कई पेड़...दीवारें साथ-साथ घूम रहीं....छोटा सा बरामदा...छोटी सी मुंडेरी....एक कमरा...बाबा आदम के जमाने के उस बंगले का ही हिस्सा...लेकिन अलग-थलग..... वो लफंगा इनसान साथ में....कमरे में प्रवेश करते हुए धुकधुकी ....बहुत दिन बाद मिलना हो रहा था.....आवाज खनकी...आइये आइये... एक दांत पर चढ़ा दूसरा दांत चमका.....
यही हैं अरुणा सेनगुप्त....जो लाइन मारने में विश्वास रखते हैं उनके लिये...कुमकुम।
एपी सेन रोड का एक मुहाना चारबाग स्टेशन से अमीनाबाद और दूसरा स्टेशन से हजरतगंज जाने वाली सड़क पर। उसे स्टेशन रोड भी बोलते हैं। इन दोनों मुहानों के बीच की दूरी छह सौ मीटर से थोड़ी ज़्यादा और चौड़ाई इतनी.. कि एक ट्रक निकल जाए। अब तो अक्सर जाम लगा रहता है......तब यह रोड अलसायी सी कुनमुनाती हुई जैसे किसी का इंतजार कर रही हो... इस मुहाने से सिगरेट सुलगायी और खरामा खरामा उस मुहाने तक कश पे कश। दोनों तरफ बंगले....पेड़ों के बीच छुपे से...कुछ दो मंजिला मकान...तीन मंजिला मात्र दो....लेकिन सभी की चहारदीवारी के साथ लगे फूलों के पौधे या आम के पेड़ और तिकोना अर्जुन। देखने लायक रंगत होती मई-जून की दोपहरों में, जब गर्म हवा...दोनों कतारों को लेफ्ट-राइट कराती हुई अपनी खूबसूरती बिखेरने को ललकारती...एक तरफ सुर्ख गुलमोहर तो दूसरी तरफ अमलतास की बासंती बहार...और सड़क पर बिखरी पड़ी लाल-पीली छटा.....स्टेशन रोड वाली तरफ से दाहिनी तरफ कई एकड़ जमीन पर पहला बंगला डॉ. सेन गुप्ता का। सीडीआरआई में जाने माने साइंटिस्ट....
जाड़ों की उस शाम चारबाग के रोशन बाजार में चूंचूं खरहा के माफिक छलांग मारता दिखा.....अफ़िशिअल नेम..मिथलेश चतुर्वेदी...अपन की जिंदगी में ऊदबिलाव की माफिक नामुदार हुआ और बिला गया...अनूप जलोटा का बेहद करीबी...कई सालों से मुम्बई में अभिनयबाजी कर रहा है......अपना कैमरा गुरू भी हुआ करता था .....
आवाज दी...रुकते ही ब्रजभाषा में चौबों वाली गालियां...फिर हरी आंखें सिकोड़ कर दांत चमकाए....तुम साले कुछ कर धर तो रहे नहीं हो....चलो कुमकुम के घर....नाटकों से दिल लगाया जाए। अपना वक्त पीएचडी और प्रोफेसर केके श्रीवास्तव से तौबा बोल मैडम मलिक की याद में गुजर रहा था। एक दम तो घर में घुसने की हिम्मत थी नहीं सो चूंचूं ने किसी दुकान से फोन लगाया...बातचीत से लगा कि मंजूरी मिल गयी है।
अब उसी बंगले के अंदर..उसी कमरे में...खनकती आवाज...अदा के साथ ......आ..प.. भी सृष्टि.. में.. आ..ना.. चाह...............ते हैं! अपन हल्के से डुलडुलाए.....चलिये इसी बात पर आपको कॉफी पिलायी जाए....कल आप आ जाइये...आपको सुधीर जी से मिलवा दूंगी...ये नामाकूल कौन.....चूंचूं ने इशारे से रोका.....कॉफी पी कर खनक से मीठी विदा ली....गेट से बाहर निकल सड़क पर ही चूंचूं का रॉक एंड रोल शुरू.....ये सुधीर साहब कौन हैं? कुमकुम के होने वाले वो और सृष्टि के कर्ताधर्ता....दूरदर्शन में हैं। यूनिवर्सिटी के सामने योगकेन्द्र.....वहीं रिहायश.....
तो जी.... दूसरे दिन से हम रंगमंची हो गए। सुधीर ने पहली प्रस्तुति के लिये उपन्यास तलाशने और फिर उसको रंगमंचीय बनाने का काम अपन को सौंपा....ओहदा...सहायक निदेशक...
उस बैठक में एक और शैदाई...शीतल मुखर्जी...इंटर फेल होने के बाद के इंटर का साथी....तब अपन को बंगाली बनाने में जी जान से जुटा रहता था.....तबाह जीनियस.......चूंचूं से उसकी दुश्मनाई तो कभी दोस्ती....भारी पड़ गयी अपने को....बाद में.....
शरतचंद के चरित्रहीन पर लग कर काम किया...कुछ दिन रिहर्सल भी हुई...अपने को मिला दिवाकर का रोल....खर्चा लेकिन बहुत आ रहा था....तो कोई हल्की-फुलकी चीज तलाशी गयी.....फाइनल हुआ रमेश बक्शी का वामाचार..... मंच पर पहुंचने से पहले ही सृष्टि दमकने लगी थी....बंगला गुलजार होता गया... रोजाना नये-नये चेहरे......नये अंदाज...नयी बातें...नये शिगूफे...किनारे पर ही ढाबा...वहां चाय के साथ बैठकी....शीतल के साथ चरस के दम ....एक सिगरेट के बाद ही दिमाग दौड़ने लगता....वामाचार को फटाफट रंगमंचीय बना दिया......रवीन्द्रालय का मिनी थियेटर चार दिन के लिये बुक.....सबने अपने-अपने टिकट बेच डाले...उन्हीं दिनों उसका लखनऊ आगमन...अपना कारनामा दिखाने को बुलाया लिया ...
चार दिन खूब गहमागहमी के रहे...पांचवे दिन से उजड़े दयार में...कुछ दिन बाद फिर नये स्क्रिप्ट की तैयारी....रात के एक बज जाते...लौटते समय बहुत लम्बा चक्कर लगाने की आदत...शीतल से आर्यनगर में ही विदा ले लेता...वहां एक हवा महल...हवा महल में सोयी राजकुमारी...जिसे कभी पता नहीं चला कि आधी रात कोई एक उसके दरवाजे तक आ कर लौट जाता.....
इस बार चरित्रहीन...फिर सहायक निदेशक...योगकेन्द्र भी जाना शुरू...एक दिन सुधीर बोले...हम तुमको एनएसडी भेज रहे हैं...तैयार हो ना....स्क्रिप्ट के चलते बंगले में कई बार जाना होता...कुमकुम से खूब दोस्ती हो गयी..अपना एक काम और....शीतल और चूंचूं को आपसे में भिड़ने से बचाना...दोनों काफी पहले से कुमकुम के दीवाने थे.....किसी एक ने अपना रकीब मान सुधीर के कान भर दिये......
अब इस गुफ्तगू पर गौर फरमाएं....तुम कुमकुम को क्या मानते हो....अच्छी दोस्त है....मैं सोचता था बहन मानते हो...सुनते ही दिमाग भन्ना गया....वो है मेरे पास...दुनिया भर की लड़कियों को बहन मानने का कोई इरादा नहीं.....दूसरे दिन से जाना बंद ...कई बार बुलावा आया...पर नहीं गया....नहीं गया तो एनएसडी भी गया तेल लेने.....इसी सृष्टि से बाद में अनुपम खेर जुड़े...साइकिल पर यहां-वहां डोला किये...शीतल ने उन्हें रोक कर मिलवाया...उन्होंने मर्चेंट ऑफ़ वेनिस का मंचन किया...अब दर्शक की भूमिका में..साथ में नीना भी थी....
और अब...बस यह पता है कि दो मुम्बई में...दो इस दुनिया से जा चुके....बाकी...उस ग्रुप के 20 और जनों की कोई जानकारी नहीं.....लखनऊ जाने पर एक बार वहां से जरूर गुजरना...बंगले पर निगाह जरूर डालनी...वहां अब कोई आवाज नहीं....गुलमोहर और अमलतास की कतारें साफ कर दी गयी हैं.... एपीसेन रोड...जहां कई झुलसाती हवाओं को छू कर मस्ती छायी है अपने पर...अब उस मुहाने से इस मुहाने तक आते-आते उदासी दसियों गुना बढ़ जाती है. क्या खोया क्या पाया के चक्कर में पड़ने से बचने को उस पर बंद कर दिया है पैदल चलना.....