मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

भारतीय संसद यानि गरीब की जोरू


क्या करेंगे संसद भवन या उसकी गतिविधियाँ

देख कर, सांसदों को दस-पंद्रह रुपये में

मिलने वाला भोजन ज़्यादा मोहक है

राजीव मित्तल

लोकतंत्र की बिसात जिन चार पायों पर टिकी है, उनमें विधायिका भी है, लेकिन हमारे देश की राजनीति ने इसे गरीब की जोरू यानि उस भाभी जैसा हाल कर दिया है, जिसकी हमेशा बेक़द्री ही की जाती है । अब तो इस बात को याद करने में याद्दाश्त भी धोखा देने लगी है कि कभी हमारी संसद में ऊंचे दरजे की बहस हुआ करती थीं...कि संसद की लायब्रेरी में बैठ कर हमारे सांसद अपनी बात रखने को नोट्स बनाने में मशगूल रहते थे या हमारे प्रधानमंत्री विपक्ष के सवालों के जवाब रात रात भर उस विशाल लायब्रेरी की रैकों में सजी किताबों में तलाशते थे। नेहरू युग के बाद से ही मतदाता का काम केवल वोट डालना रह गया है, जीतने वाला शपथ ग्रहण करते ही कोटे का घर, घर की सजावट , टेलिफोन, विमान यात्राओं के टिकट, नौकर-चाकर, अपने क्षेत्र से चमचों की भर्ती और मीडिया में रसूख बनाने में जुट जाता है। उसको संसद भेजा क्यों गया, इसे वो अपनी जोड़-तोड़ की करामात मानता है, अपनी पूजा-पाठ की कृपा मानता है या उस क्षेत्र में अपनी जाति के मतदाताओं का आभार मानता है । अधिकाँश सांसदों ने संसद का अर्थ अपनी हनक दिखाने, अपार सुविधाएं उठाने, कैंटीन में बैठ बहुत कम पैसों में बहुत पौष्टिक खाद्य पदार्थ जीमने और अपने नेता का इशारा मिलते ही संसद को चौराहा बना देने तक सीमित रखा है।

संसद तो रोम की भी होती थी, जहां जूलियस सीजर की हत्या हुई, और संसद कोपेनहेगन की भी होती थी, जहां डेनमार्क की गुलामी झेल रहे आइसलैंड के नाविक डेनिश संसद में आजादी की चाह लिये जब-तब आ जाते और दिन-रात न खत्म होने वाली कविताएं पढ़ते। आखिर में डेनमार्क के सामने कोई चारा नहीं रहा आइसलैंड को सिवाय आजाद करने के। हमारी संसद का इन दोनों बातों से कोई तालमेल नहीं...लेकिन हमें तय तो करना ही पड़ेगा कि कब तक हम लोकतंत्र के इस तीसरे पाये से मजाक करते रहेंगे।

अब हमारी संसद सत्ता-पक्ष और विपक्ष द्वारा अपनी हनक दिखाने का अखाड़ा बन कर रह गयी है, जहां कई सारे पहलवान एक-दूसरे को ललकारते रहते हैं। संसद होती है अपनी बात रखने के लिये, जब बात न मानी जाए तो बहस करने के लिये....वही बहस अब चील-कौवों के बीच मांस के लोथड़े को लेकर छीना-झपटी का रूप ले चुकी है। और जब उससे मन उकता जाए तो बहिष्कार विपक्ष का प्रिय शगल बन गया है तो सत्ता पक्ष का काम..जाव-जाव बहुत देखे हैं तुम्हारे जैसे...टाइप का। संसद के स्तर को इतना नीचे गिरा देने का ही नतीजा है कि हमारी कई संवैधानिक संस्थाएं इस गरीब देश के नागरिकों की जेब पर भार बन कर रह गयी हैं।

आंकड़ों के जरिये हम अपनी पीठ तो ठोक लेते हैं कि हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं या हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी औद्योगिक शक्ति हैं या हम तीसरी-चौथी-पांचवी सबसे बड़ी ये ताकत वो ताकत हैं.....लेकिन हम यह नहीं देख रहे कि हम इन विशेषताओं पर अमल किस अंदाज में कर रहे हैं या हम कितना सकारात्मक लाभ उठा रहे हैं......या ये विशेषताएं हमें कोई गर्व या कोई ऊर्जा प्रदान कर भी रही हैं या नहीं। और अब तो यह सोचने की नौबत आती जा रही है कि क्या हम लोकतंत्र के लायक हैं भी कि नहीं।