शुक्रवार, 17 जून 2011
नदी पर कफन मत डालिये
राजीव मित्तल
विकास हो या आस्था, इस देश में दोनों ही अनियंत्रित हो चुके हैं। इस अनियंत्रित विकास और आस्था का सबसे ज्यादा खामियाजा उठा रहे हैं नदियां और वनस्पति और उनसे जुड़े जीव-जंतु और पक्षी ।
साल के करीब पचास सप्ताहों में हर सप्ताह के दो-तीन दिन ऐसे होते हैं, जब इस देश की महिलाओं की आस्था चरम पर होती है। उन दिनों में हजारों-हजार महिलाएं गंगा के जल में खड़े हो कर बर्फी और गुलाबजामुन का चढ़ावा चढ़ाती हैं ताकि मैया उनके परिवार को अकल्याणकारी शक्तियों से बचाए। वाराणसी के आसपास और शहर की महिलाओं की इस संड़ाध मारती आस्था ने गंगा को एक तरह से कफन पहना दिया है।
इसी तरह दशहरा और गणेश चतुर्दशी का समापन कर लाखों लोग गाजे-बाजे के साथ नदी में दुर्गा और गणेश की प्रतिमाओं का विसर्जन करते हैं। कभी ये प्रतिमाएं केवल मिट्टी की बनायी जाती थीं....उनका रंग-रोगन भी प्राकृतिक होता था, लेकिन अब आस्था पैसे के अश्लील प्रदर्शन से जुड़ गयी है, तो प्रतिमाएं भी जहरीले रसायन से लबरेज हो गयी हैं ताकि उनकी चमक-दमक और सज्जा शहर भर में सराही जाए। नदी को मारने में इन प्रतिमाओं का कम बड़ा हाथ नहीं।
इसी तरह इस देश के लाखों पीपल और बरगद महिलाओं की आस्था का शिकार हो चुके हैं और आगे भी सदियों तक होते रहेंगे। पीपल पर तो सप्ताह में किसी भी दिन धावा बोल दिया जाता है और उसकी जड़ों में न जाने कितना सरसों का तेल ठूंस दिया जाता है....हरभरा पीपल खड़े-खड़े खोखला हो जाता है। यही हाल होता है बरगद का उसके पता नहीं कौन से विवाह पर।
जिन नदियों पर आस्था का एसा घिनौना लाड़ उडेला जाता है, उन्हीं नदियों में अपने घर की गंदगी उडेलने में हम भारतवासी दुनिया की किसी भी कौम को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं।
अरब के मक्का में पानी का एक स्रोता है अबेज जमजम, उसका पानी गंगा की ही तरह पवित्र माना जाता है......सदियों से उस स्रोते के जल का इस्तेमाल आस्था के कामों में किया जा रहा है, रोजमर्रा हजारों की भीड़ जमा होती है उस पानी के लिये....लेकिन वो जगह आज भी उतनी ही पवित्र और स्वच्छ और अप्रदूषित है। कल्पना कीजिये...अगर वो स्रोता हमारे देश में होता तो उसका हाल सुलभ शौचालय से भी बदतर हो चुका होता और चारों तरफ लगे होते कूड़े के ढेर।
इस देश की कोई भी नदी प्रदूषण के जहरीले पंजों पूरी तरह जकड़ चुकी है। किसी भी शहर के आसपास से गुजरने वाली नदी..चाहे वो गंगा मैया हो या युमना या मां नर्मदे, सभी में पूरे शहर का कचरा ऐसे गिराया जा रहा है जैसे हम भारतीयों को उस नदी या उसके जल से सदियों पुरानी दुश्मनी हो।
शहर हो या देहात या कस्बा..हर किस्म की गंदगी के पनाले और कारखाने और मिलों से निकल रहे नालों का मुंह वहां से गुजरने वाली छोड़ी-बड़ी कैसी भी नदी में ही जा कर खुलता है। सदियों से जो नदी उस शहर की सांस बन कर जी रही थी, गैस चैम्बर में बंद कर उसका दम घोंटा जा रहा है। वो नदी या तो खुद एक बड़ा नाला बन कर रह गयी है, या भू माफियाओं ने उस पर कॉलोनी बसा दी हैं।
जिस देश में बहती जलधारा की हजारों साल से पूजा होती आ रही हो, जिस गंगा जल को वाटर कह देने भर से बजरंगी और रघुवंशी तोड़फोड़ पर उतर आते हों, केन्द्र और राज्य सरकारें उनींदी आंखों से इन नदियों में काला जल बहता देख रही हों, उन हालात में गंगा या किसी भी नदी को मिठाइयों का चढ़ावा पता नहीं किस आस्था को दर्शा रहा है, लेकिन इन जीवनदायनियों का कल्याण तो कतई नहीं हो रहा।
गंगा का सर्वनाश हम अपने हाथों शुरू कर चुके हैं। यमुना समेत हजारों नदियों को जहन्नुम का रास्ता हम दिखा ही चुके हैं। इंदौर की खान नदी को बजबजाता नाला हमने बना ही दिया है। उज्जैन की शिप्रा का तट आस्था के नगाड़े पीटने के लिये माकूल जगह बन गया है, लेकिन जिसकी एक-एक बूंद हमने निचोड़ ली है। बुंदेलखंड की बेतवा अंतिम सांसें ले रही है। प्रयाग की सरस्वती की तरह हजारों नदियां इतिहास के गर्भ में समा चुकी हैं और अब उनकी याद में हम मेले-ठेले जरूर लगाते हैं।
अब आइये एक निगाह डाल लें उस नदी पर, जो गंगा से भी दस लाख साल पुरानी है...वो है नर्मदा....उसका हाल गंगा जितना पतित तो नहीं हुआ है, क्योंकि मध्यप्रदेश में विकास अभी शैशव अवस्था में है, लेकिन काल उसका भी तय हो चुका है। जंगल और पहाड़ों में उछलती-कूदती बहने वाली नर्मदा पर अब बांधों ने शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। उसकी प्राकृतिक धारा नहरों में बदलती जा रही है। और जिस भी शहर के पास से होकर वो बह रही है, उसमें जल में आस्था और विकास का तांडव रंग ला रहा है।
नर्मदा से जुड़ने वाले शहरों में जबलपुर भी है। नर्मदा ने यहां भी सुखी मन से बहना बंद कर दिया है। उसका प्रवाह केवल परम्परा का निर्वाह कर रहा है। नर्मदा का समूचा किनारा गलीच आस्था और घृणित विकास के चलते जैसे-तैसे सांस ले पा रहा है।
हजारों साल पहले नष्ट हो चुकी मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा सभ्यता के बाद अब इस नष्टप्राय सभ्यता का नामकरण अभी से कर लीजिये। पता है न.... कि वो सभ्यताएं क्यों इतिहास में जा समाईं ...क्योंकि नदियों ने किनारा बदल दिया था.....और अब तो नदी ही गायब होती जा रही है।