शनिवार, 4 जून 2011
जैली
सआदत हसन मंटो
सुबह छह बजे पैट्रोल पंप के पास हाथ गाड़ी में बर्फ बेचने वाले को छुरा घोंपा गया। सात बजे तक उसकी लाश सड़क पर गुड़मुड़ी हुई पड़ी रही और उस पर बर्फ पानी बन टपकती रही। सवा सात बजे पुलिस लाश उठा कर ले गयी..बर्फ और खून वहीं सड़क पर पड़े रहे। फिर एक टांगा पास से गुजरा। उसमें बैठे बच्चे ने सड़क पर खून के जमे हुए लोथड़े की तरफ देखा-उसके मुंह में पानी भर आया। अपनी मां का बाजू खींच कर बच्चे ने उंगली से उस तरफ इशारा किया:.. देखो मम्मी....जैली......!
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राजीव मित्तल
छह दिसम्बर की दोपहर बाबरी मस्जिद का हाल जैली जैसा ही समझिये। शरीर से खून तो नहीं टपक रहा था....लेकिन शरीर का अंगअंग यहां वहां छितराया पड़ा था। महज दो घंटे लगे उसको तोड़ने-फोड़ने और चीरने-फाड़ने में संघ परिवारियों को। बर्बादी का नज़ारा......जैसे कोई तोप के गोले बरसे बरसे हों.....
पांच दिसम्बर की रात को स्वतंत्रभारत की अयोध्या जाने वाली टीम में शामिल...पंकज जी से पूछे बगैर...वो जाने को मना कर देते। सुबह छह बजे फैजाबाद। देश-विदेश का सारा मीडिया होटलों में ठुंसा पड़ा। लखनऊ वालों की टीम वाले होटल में घुसे तो..... तेरी सुबह कह रही है तेरी रात का फसाना.... वाला हाल.....रात भर अय्याशी हुई है....की भड़ास ब्यूरोचीफ ने निकाली और रजाई में। वहां से फौरन निकल कनपुरिया टीम अयोध्या पहुंची....वहां फिर क्या क्या हुआ....इसकी रिपोर्ट बूढ़ी काकी की दर्दनाक मौत.... में......सब टूट-फूट हो जाने के बाद जान बचाकर भागे तो रात नौ बजे कानपुर लगे। शहर पर उन्माद हावी हो चुका था। उमा भारती बाबरी के ढहने के तुरंत बाद वहीं मंच पर बोल ही चुकी थीं कि भारत को एक हजार साल की गुलामी से आज छुटकारा मिला....तो हिन्दुओं की छोटी सी जमात उस आजादी का जश्न मना रही ....और मुस्लिम समुदाय सहमा हुआ.....पाने-खोने के जुनून ने रात होते-होते दोनों के हाथों में हथियार थमा दिये। इधर, अपनी लिखी रिपोर्ट छापने पर पंकज जी ने पाबंदी लगा दी.......उधर, उस रात मेस्टन रोड में जम कर गोलियां चलीं। हम सभी पलंग वासियों को ऊपर शिफ्ट कर दिया गया। अगली सुबह ऑफिस से लगे मधुबन होटल में सब के ठहरने का इंतजाम। सबसे ज्यादा चिंता जावेद बख्तियार को लेकर क्योंकि उस दिन अधिकांश चेहरे गेरुए नजर आ रहे। उसका इंतजाम अपने कमरे में किया। पूरा हफ्ता कर्फ्यू के हवाले। कई बार गंगा के किनारे पंडों से प्रसाद खरीद कर पेट भरा।
शहर में कई लाशें बिछ जाने के बाद....सेना ने कमान संभाली..एक दिन फौजी कारवां के साथ मुस्लिम इलाकों का दौरा किया। जैसे ही नई सड़क के उस हिस्से में घुसे तो सुनसान पड़े बाबा बिरियानी होटल के पास कुछ लोगों ने घेर लिया...आप हमारे साथ चलें...कुछ हिन्दुओं को बचा कर रखा है....करवां काफी आगे निकल चुका था.....सोचने-विचारने का समय नहीं। एक पुरानी हवेली के तहखाने में कुछ मुरझाए चेहरे। साथ लेकर बाहर आया...तब तक पुलिस जीप आ गयी....उन्हें सौंप गहरी सांस ली।
वली..तलत..जगजीत अब कम्पनीबाग में
धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया। साबरमती एक्सप्रेस के मजे फिर शुरू। नये साल के दस दिन बीतने के बाद दिल्ली निकल गया। दस दिन बाद लौटा तो ऑफिस में नया चेहरा। जिसके आने की चरचा कुछ दिन से चल रही थी, यही है की सोच हाथ आगे बढ़ा कर नाम बताया। अगले ने खड़े हो कर गर्मजोशी दिखायी और एक ठहाका---तो तुम हो....यार जबसे आया हूं तुम्हारी इतनी बुराई सुन चुका हूं सभी से कि तुमसे मिलने की तमन्ना जोर मार रही थी। संजय द्विवेदी...दिल्ली संडे मेल से। शहर उसका भी कानपुर ही....लेकिन काफी अलग लगा.... हवा का ताजा झौंका सा। तुरंत दोनों की पटरी बैठ गयी। घर कैसा लिया जाए पर एक सुझाव अपना भी.....चाहे कुछ हो न हो...टैरेस शानदार हो। एक शाम ऑफिस पहुंचते ही.......घर ले लिया है...बिल्कुल तुम्हारे मन का है......अब मेरे साथ रहो....दूसरे दिन घर देखा तो तबियत फड़क उठी। उबासी मारते कम्पनी बाग में तीसरे माले पर एक कमरा और पूरी छत.....सड़क पार के मकानों के पीछे गंगा की धारा....आए दिन बहार के...रुको रुको.....संगीत के नाम पर तुम्हारे पास क्या है..मैं उसके बिना नहीं रहूंगा यहां..भाई ने जेब में हाथ डाला....गुल्लक टटोली....तीन हजार हुए । चलो अभी चलें.... बाइक थी उसके पास....गुमटी नम्बर-5 पर वीडियो कॉन की शॉप....
ढाई हजार का सिस्टम और आठ सौ के तीन गायकों के कैसेट ....कुछ अपनी तरफ से मिला कर पूरे कम्पनी बाग को संगीतमय बना देने का पक्का इरादा .....घर लौट कर कुछ सुना और काम पर चले गये। रात दो बजे लौटते समय सुबह पांच बजे तक का इन्तजाम करके घर आए। कैसेट लगा दिया। ज्यादातर मकान बंगलेनुमा थे और हम छत पर...इसलिये फुल वॉल्यूम पर। दो दिन बाद लखनऊ जाकर अपना खजाना भी उठा लाया। उनमें कई कैसेट तो ऐसे थे जो एक रात्रि जागरण के दौरान चाचा नम्बर दो के घर में जूतों के डिब्बों में पड़े मिले। ऐसे बेकदरों के घर में चोरी करना कोई गलत नहीं लगा और सब भर लाया।
इस तरह चार महीने बाद फिर गुलजार हुआ कानपुर। वली मोहम्मद को सुन संजय भी सिर धुनने लगा। धीरेंद्र का साथ छूट चुका था। मेस्टन रोड की गलियां भी छूट गयी थीं.....हाथरस वाले की जलेबियां और कचौरी.....और डबल हाथरस वाले का मालपुआ......भारत रेस्त्रां के मालिक बुजुर्गवार टंडन जी.....शानदार खाना ...अपने सामने बैठा कर खिलाते....बस हम दो और टैरेस पर लहराता संगीत और दरी पर दो गिलासों में ढलती कंटेसा....जो संजय दिल्ली से ढेर सारी उठा लाया था ... और सिगरेट का धुआं..... रात के इस दो से पांच वाले कार्यक्रम ने बड़े गुल खिलाए। अब बाइक पर पूरे कानपुर शहर के चक्कर भी....कहीं डिवाइडर पर मजमा...तो कई रातें गंगा के किनारे। एक अद्भुत कार्यक्रम और....संजय के नाना-नानी बिठूर के वासी.....कई बार उधर निकल जाते और सुबह साफ-सुथरी गंगा में डुबकी लगाते....शुक्लागंज में आशुतोष बाजपेई के यहां भी जा धमकना....सुबह गरमागरम जलेबी और समोसे। गंगा पार विवेक पचोरी का घर....उसको भी कम परेशान नहीं किया। बस अजय शुक्ला को बख्शे रखा....जरा ज्यादा ही सज्जन था।
संजय इस लाइफ स्टाइल से इतना खुश कि बोला...तुमने जागना सिखा दिया....रात इतनी खूबसूरत होती है यह तुमसे पता चला....
एक रात नौ बजे संजय का फोन.....एक्सीडेंट हो गया है....जल्दी आओ...... उसका हाल देख गश आने लगा......एक बांह पूरी टूट चुकी थी....कई जगह चोट के निशान....दिलेर इनसान खड़ा ही मिला.....मरहम पट्टी के बाद तय हुआ कि वो रात की ट्रेन से दिल्ली निकलेगा....घर और बाइक मेरे हवाले.....10-12 दिन सब कुछ अकेला.......
पंकज जी ने अब की बार सम्पादक बनाया विजय तिवारी को.....नवभारत टाइम्स में देखा-देखी......शरीर का जुगराफिया याद था.....बोर्ड पर कार्टून बना कर नीचे लिख दिया....अंग्रेजों के जमाने का जेलर....आधे उस तरफ...आधे इस तरफ...बाकी मेरे पीछे....भाई ने उस दिन वर्दी नहीं चढ़ा रखी थी.....बाकी हू बहू शोले का जेलर.....हॉल में जूते ठोंकते हुए कदम रखा...खटपट खटपट करते हुए बोर्ड तक गए....पढ़ा...मुंह हिलाया....फिर कुर्सी पर.....
एक साल उनके साथ मजेदार बाता...जब रात को अपना केबिन छोड़ते तो टीवी बीबीसी पर बंद करके ...सुबह खोलते तो सामना जी चैनल से....फरमान निकाला...मेरे जाने के बाद दरवाजा लॉक कर दिया जाए....उनके जाते ही चपरासी को बुला कर कहा मैगजीन निकालनी है खबर को अपडेट करने के लिये.....दरवाजा खुलते ही टीवी फिर जी चैनल पर ठुमके मार रहा.....उस दिन नॉब ऐसी कसके उमेठी कि बाहर आ गयी...तुरंत पीछे सुतली लपेट कर ठोक दी......दूसरे दिन केबिन में दहाड़ने की आवाज....तुरंत अंदर पहुंच गया...सर, लीड क्या बनाऊं? क्या है....सर एक बकरी ने छह बच्चे दिये....भाई ने बस कुर्सी फेंक कर नहीं मारी.....तुरंत अपना लिखा एंकर पकड़ा दिया....तुम्हारा क्या करूं...मुझसे ही खेलते हो.....सही बोले जनाब....वास्तव में थे खेलने की ही चीज....लेकिन जरा सुकून से.....
बनारस से पंकज जी ने दो और महारथी भेज दिये....दोनों चीफ सब, पर रिश्ते देवरानी-जिठानी वाले...प्रदीप अग्रवाल और दिवाकर.....पंकज जी ने दोनों को एडिटर बनाने का आदतन झाम दे रखा था...वहां का जो पुख्ता एडिटर...वो इन दोनों का भी बाप....आप समझ सकते हैं कि कैसे चला होगा बनारस में....तिवारी जी ने फौरन दिवाकर को लपक लिया....वो था भी एडिटर की दंतखोदनी.....प्रदीप अग्रवाल पूरा लप्पूझन्ना.....इनमें दो जेलर के बिल्कुल खिलाफ...हमेशा जय-वीरू बने रहते.....असली खेल और असली मजा अब शुरू हुआ। साल खत्म होते होते संजय और प्रदीप चले गये...दो महीने बाद कानपुर से भी......एक बार फिर वली और हम सड़क पर.....विजय तिवारी का लखनऊ ट्रांसफर..
अब प्रमोद जी.....नवभारत टाइम्स में आदर वाली निकटता रही.....अब कानपुर का सारा सुख-दुख रॉबिन डे के हवाले.....पेज मेकर.....पर सबसे ज्यादा साथ दिया...जाड़ा-गर्मी-बरसात....रोज रात को दो बजे स्टेशन छोड़ने जाना...जब तक ट्रेन न आ जाए...साथ बैठ कर ओंघाना...कई बार अपने घर में सुलाना....वीरानी छाते ही लिखने-पढ़ने पर ध्यान दिया......पंकज जी ने अपनी पत्रकार धर्मपत्नी को फीचर सौंप दिया था.....दोस्ताना परिचय.....पुराना..अपना लिखा बेहद पसंद...काफी मेहरबान रहीं..... जो भी लिखता उसकी सजावट कर छापतीं.....
तब तक दिल्ली में बिजनेस इंडिया टीवी के आने का हल्ला मचने लगा था। संजय ने ज्वायन भी कर लिया.....दिल्ली गया मिलने.....पंचशील एनक्लेव में काम शुरू हो चुका था। सबसे मुलाकात हुई....पर टालमटूल...कानपुर से अब अदबदाने लगा था मन...कुछ समझ में नहीं आ रहा था....एक सुबह कानपुर से ही गोमती एक्सप्रेस में बैठ लिया... और.......