रविवार, 26 जून 2011

दिल्ली में पांचवीं बार










मयूर विहार फेज-1. पॉकेट-टू ....जब बन रहा था तभी से आवागमन...कई बार प्रदीप जी के घर का रास्ता भूल फेस-टू में पहुंच जाता। हर माल दो किलोमीटर की दूरी पर। मुंडेरों पर जहां-तहां मोर दिख जाते...विहार तो मोरों के नाम पर बस गया.....बसावट ने लील लिया।

गुरुदेव प्राचीन पत्रकार...भाभी शिक्षण कार्य में रत्। दो बच्चे.....अंकल..आप मुझे इतने अच्छे क्यों लगते हैं...कहने वाली सात साल की पूजा..कभी भन्नाकर हाथ भी चला देती और नाई की दुकान पर....ये हमारे सबसे प्यारे अंकल हैं.....परिचय कराता शालू, भले ही घर में जम कर
मुक्केबाजी होती हो... और बच्चों की दादी के तो क्या कहने....सुबह जैसे ही ऑफिस के लिये भागता....झपाके से रसोई से निकल हाथ में डिब्बा थमा देतीं....इत्ते देर में आवत हो....ई खाये लियो..और देख्यो...रात में दरवाजा हौले से खटखटायो....घंटी मत बजायो। भैया जाग जाहीं..हमीं खोलब.....आये के चुपईचाप लेट जायो हमरे कमरे मा। और भाभी जी....चरित्रहीन की सुरबाला..प्रदीप जी से जरूर सतर्क रहना पड़ता कि कब चौधराहट पर उतर आएं...

घर तो तलाशना ही था क्योंकि गाजा-बाजे के साथ देवी पधारने वाली थीं। कई मकान देख डाले कोई मन को न भाये। प्रॉपर्टी डीलर भी दुखी हो गया। एक रात.......यह वाला पसंद न आया तो भाड़ में जाओ का अंदाज.....ले गया दिखाने दूसरी या तीसरी गली में...पहली मंजिल पर.....मकान मालिक पुणे से आए हुए थे...एनडीए में शिक्षक.....दो कमरे हम बंद रखेंगे सामान भर कर....किराया ढाई हजार...नहीं दो...बीवी से पूछने गये...ठीक है.. दो...सामान पर नजर डाली...सब काम की....फ्रिज...टीवी....पंखे..डायनिंग टेबल...कुर्सी मेज...साथ में एक कमरा और मिल जाएगा....ये सब आप मुझे दे दीजिये और कमरा भी......तब किराया तीन हजार...नहीं ढाई.....फिर बीवी से पूछने गये अंदर.....कमाल है जी वो आपकी सब मान रही हैं...ठीक है ढाई.....कल दोपहर में मेरी ट्रेन है....आप लीज़
बनवा लाइयेगा......

दूसरे दिन सनडे......एलएमएल वेस्पा की दिल्ली की सड़कों से निभने लगी थी...तलाश कर वकील से लीज़
बनवा कर उन्हें थमा दी..उन्होंने चाभी।

अब गंगा कठौती में आ गयी। ...प्रदीप जी ने पहली एय्याशी कराई...घर के सब बर्तन भांडे क्रॉकरी
क्नॉट प्लेस से..... ऑफिस में पूरी बेफिक्री.... सुईं से लेकर कढ़ाही की खरीद भाभी जी के हवाले.....रंगाई-धुलाई-पोंछाई भी.....रात को प्रदीप जी और शैलेश के साथ गृहप्रवेश....फिर हल्के सुरूर में निद्रा......पंद्रह दिन बाद ही लखनऊ से आ गये सब ....उन्हें बहुत पंसद आया घर...मयूरविहार...आस-पड़ौस....

उनके आगमन से पहले ही रसोई में गैस का सिलेंडर और चूल्हा अपनी-अपनी जगह इतरा रहे....डिब्बों में बंद दाल-चावल-मसाले गपशप में लीन....टोकरियों में सब्जियां तेरी-मेरी में मग्न ...फ्रिज में फल..डबलरोटी-मक्खन उधम मचाये पड़े। कूलर का पानी दौड़ मचाने को परेशान...कुछ दिन बाद पुष्पा जी भी पधार गयीं.......घर में कोई न हो तो कई बार बरसते पानी में एक किलोमीटर से भागी आती बच्ची को गोद में लादे....सामने वालों से चाभी लेकर बाहर पड़े गहूं अंदर करने।


ये बज़्म ए अदब है.....का जमाल

राजीव मित्तल

पंचशील एन्क्लेव में ज्वायनिंग दे दी। न्यूज रूम तक पहुँचते पहुँचते हाथ-पांव कांपने लगे...... लल्लूउउउउउउ अपनी फजीहत कराओगे इस फिरंगी माहौल में। चारों तरफ हाय..हू..हे..की आवाजें....सीढ़ियों पर बैठा शेर-शेरनियों का जमावड़ा दीदे फाड़े देख रहा.....आओ मेमने...बताओ कब तुम्हारा लुक्मा बनाएं। तभी संजय द्विवेदी नजर आ गए.......मत चूको चौहान ....और उनके कुछ बोलने से पहले यह शेर मुशायरे के अंदाज में सुना दिया.....

ये बज़्म -ए-अदब है अखाड़ा नहीं है...ये शेर-ओ-सुखन है कुल्हाड़ा नहीं है जहां बांधे जाते हैं उल्लू के पट्ठे वो खूंटा अभी हमने गाड़ा नहीं है।
यह सुनना था कि शेर नोट कराने को लपक-झपक शुरू हो गयी। लेकिन जिस शख्स को सुनाया, तीर उसके मर्म को भेद गया। सीढ़ी पर बैठे अजित शाही ने वहीं से वाह-वाह की तान लगायी। कुल जमा ये कि अब हम भी सिरके के उस जार में डाल दिये गये जहां बीआईटीवियनों का अचार पड़ना था ।

ड्राई रन के दिन थे, बुलेटिन वाले मास्टर टेप तैयार कर लाइब्रेरी में डाल देते। पहले ही दिन नीरज ने कहा...मास्टर टेप ले आइये...तो सिर घूम गया कि यह कौन सी बला है.....फिर कहा...इस स्टोरी को एडिट कराइये....कैसे...लायब्रेरी से टेप लीजिये और एडिट बे में एडिटर के पास बैठ जाइये। पंचशाल के उस में ऑफिस सब आयं..बायें.शायं....मुर्गा-मुर्गी में कोई फर्क नहीं हो पा रहा था।

जिस रात नियुक्तिपत्र मिला था....उसी रात बाहर एक पेड़ के नीचे कई जन्तु जमा होकर गुटरगूं करने में लग गये इस नये जीव का शिकार को लेकर। अगुवा थे एक पुराने मित्र। नीरज उसी का चेला।

स्पेशल करेस्पॉंडेंट शैलेश की शरण में गया...तब पूरा खेल समझ में आया...कि शाही अपने आगे सहाय जी या बादशाह को कुछ नहीं समझते। और शाही की टीम में जितने पंछी हैं वो... कटोरे में कटोरा बेटा बाप से भी गोरा...। और अपन ठहरे सहाय जी की टीम वाले....परवेज ने ज्वायन नहीं किया था अभी....ले-दे कर तीतर-बटेर-फाख्ता-मुर्गा एकमात्र यह बेचारा ।

पर जी, यहीं ब्लंडर कर बैठी शाही की टीम...अगर थोड़ा दोस्ताने में चलते तो अपने को सीखने में लगता एक साल...लेकिन पहले ही काट कर पका लेने के उनके इरादे ने अपने को एकलव्य बना दिया। सबसे पहले सीखनी थी टाइपिंग...जो 25 बार बाप का पैसा फूंकने के बावजूद नहीं सीख पाया था। कीबोर्ड पर स्टिकर लगवा गीत और गजलों को याद कर टिकर.. टिक.. करना शुरू कर दिया। दस दिन में और सब भी सीख कर झाड़नी शुरू कर दी दादागिरी..

एडिट बे में शाही गैंग की स्वाति घोष काफी सहज रही। छत पर एक हादसे में दर्शन हुए सुधा सदानंद के। शाही गैंग की आत्मघाती सदस्य। तमिल टाइगर्स वाला अंदाज। आगे कई बार भिड़ंत हुई। एंकर बहुत अच्छी थी लेकिन.. शब्द को पूरे भाव के साथ पकड़ती । उसके बुलेटिन में एंकर स्क्रिप्ट तैयार करते समय सावाधानी हटी दुर्घटना घटी का ध्यान रखना पड़ता। कमबख्त स्टूडियो के अंदर ही गाली-गलौज पर उतर आती।

ऑफिस में काम तो आठ-नौ बजे निपट जाता...लेकिन कभी प्रेस क्लब...कभी सहाय जी पकड़ ले जाते चांदनी चौक करीम के यहां...तो कभी किसी बार में। कभी बादशाह सेन के
नजदीक ही घर में रात को दावत। आशुतोष से अच्छी छनने लगी। साथ में फिल्म भी देखी। परवेज तो पुराने साथी। मयूरवार में रिहायश। अक्सर साथ आना-जाना। घर से आते तो खाने को कुछ जरूर लाते। कई बार शाम को घर पकड़ ले जाते। कई बार अपनी बांह में चुटकी काटता कि सपना तो नहीं देख रहा हूं।

अप्रैल के बीचोबीच चैनल लाँच हुआ ताज मानसिंह में। सभी को शाही अंदाज़ वाला आमंत्रण कार्ड । वहां अपने को..... क्या खाऊं... में मदद की अशोक आडवाणी ने। घर छोड़ा शाही ने। रास्ते में शाही को परखा....आधा घंटे के सफर में बेहद यारबाश और मस्त इनसान॥वो खुद नहीं समझ पा रहे थे कि इतना कुछ कैसे हासिल हो गया उन्हें।


चैनल पहले ही दिन बोल गया। गलत ट्रांसपॉंडर ने कर दिया चौपट...हम क्या कर रहे हैं वो घर पर तो क्या...दिल्ली में भी नहीं दिख रहा था। जबकि बिहार-गुजरात में सब देख रहे थे और पसंद कर रहे थे।


पंचशील से शिफ्ट हो कर उदयपार्क में... मस्जिद मोड़ पर किराये की शानदार बिल्डिंग। जिसके तीन फ्लोर हमारे। पहली मंजिल पर न्यूजरूम...ऐसा चकाचक कि उसे देखने वालों के लिये टिकट नहीं लगा था बस। चार-चार एडिट बे। पंद्रह क्यूबिकल। तीन छोर पर बॉसेस केबिन.... चौथी तरफ बुलेटिन कमांड केबिन... सीनियर राइटर होने के नाते अपने को न्यूज स्क्रिप्ट लिखनी थी या अनुवाद करना था..अपने बॉस के जिम्मे कच्चे माल यानि रिपोर्टिंग का कारोबार। अजित शाही का काम माल को पकवाना। बादशाह (अनिकेंद्रनाथ सेन) का काम पकवान को चख कर कमी बेशी निकालना। हेड जो ठहरे।