शनिवार, 14 मई 2011

चौंतीस साल की बादशाहत




राजीव मित्तल

इतिहास गवाह है कि इतने अरसे की सत्ता बिरलों को नसीब हुई है। जिस तंत्र में हर पांच साल में बहुदलीय चुनाव होते हों....उस लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक पार्टी 34 साल राज कर जाए तो इसे ऐतिहासिक कहना भी कमतर होगा। 1977 में देश में आपातकाल हटने के बाद पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में मार्क्सवादी पार्टी सत्ता में काबिज हुई..भले ही गठबंधन के रूप में, जिसमें कई छोटे-छोटे दल शामिल थे। ज्योति बसु मुख्यमंत्री बने और अगले 24 साल तक वह राज्य का शासन चलाते रहे। 80 से कई साल ऊपर निकल जाने के बाद स्वास्थ्य ने उनका साथ नहीं दिया और बुद्धदेव भट्टाचार्य को कुर्सी थमायी गयी।

बुद्धदेव के नेतृत्व में वामपंथी गठबंधन ने 2004 के चुनाव में पार्टी का 27 साल से चला आ रहा करिश्मा दोहराया। संसद और विधानसभा दोनों में उसे भरपूर सफलता मिली। लेकिन चरम पर बने रहने का आखिरी चुनाव साबित हुआ २००४... शायद कुछ साल और खिंच जाते अगर बंगाल के वामपंथी माहौल में बुद्धदेव बिल्कुल सट न जाते रतन टाटा से। और पार्टी गंडागर्दी इतनी न बढ़ जाती।

यहां पर फिर एक बार इतिहास को बीच में लाना होगा....सन् 1757 तक मराठा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गये गये थे। उससे पहले के 35 साल उन्होंने दिल्ली के बादशाहों से लेकर देश के अधिकांश राजाओं को अपने घुटनों पर झुकाया। बचे-खुचे उनसे संधि कर ही सांस ले पा रहे थे। लेकिन चार साल बाद ही पानीपत के मैदान में अहमदशाह अब्दाली ने मराठा ताकत को छिन्न-भिन्न कर दिया....ठीक उसी तरह सिंगूर बुद्धदेव के लिये पानीपत साबित हुआ। कई अखाड़े तो पहले से खुदे पड़े थे। अपने अराजक राज्य में बेहतर माहौल बनाये बगैर औद्योगिकीकरण की बहार बहाने को उतावले बुद्धदेव ने सिंगूर के किसानों की जमीन औने-पौने दामों पर टाटा को थमा दी, नैनो कार के निर्माण के लिये।

तीन दशक की वामपंथी बयार में सांस ले रहे सिंगूर के किसानों को अपने ही आका का यह फैसला कतई मंजूर नहीं था। उनके गुस्से को अंजाम तक पहुंचाया ममता बनर्जी ने। एक तरह सिर पे कफन बांध कर ममता ने वहां किसानों का साथ दिया। बुद्धदेव और उनकी पार्टी मशीनरी ने सिंगूर में अपने सारे घोड़े दौड़ा दिये लेकिन किसान और ममता टस से मस नहीं हुए। यहां तक कि रतन टाटा को ममता से चिरौरी करनी पड़ी। लेकिन वह नहीं मानीं। उसके बाद बुद्धदेव ने नंदीग्राम में उद्योग लगाने का मंसूबा बनाया...वहां भी उन्हें मुंह की खानी पड़ी। टाटा तो राज्य ही छोड़ गए।

इसके अलावा 34 साल के शासन ने मार्क्सवादी मशीनरी को गुंडई में तब्दील कर दिया था। ज्योति बसु ने राज्य के ग्रामीण इलाकों को स्वायत्त बना कर पूरे देश में वाहवाही लूटी थी और जिसकी चरचा पूरी दुनिया में हो रही थी, वे गांव और उनके साथ शहर भी मार्क्सवादी कायकर्ताओं की गुंडागर्दी से आंतक के साये में जीने को मजबूर हो गये थे। ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के आने के बाद तो राजनैतिक हत्याओं का ग्राफ तेजी से ऊपर भागने लगा। ममता भी मार्क्सवादियों को उन्हीं के अंदाज में टक्कर दे रही थीं।

प्रदेश की राजधानी कलकत्ता और बंगाल के अन्य बड़े शहर, जो मार्क्सवादी पार्टी का गढ़ हुआ करते थे, पिछले स्थानीय निकायों के चुनाव में बुद्धदेव को अंगूठा दिखा गये। 2009 के संसदीय और विधानसभा चुनाव के नतीजों ने तो साफ संकेत दे दिया था कि अब राज्य में वामपंथियों के दिन गिने-चुने रह गये हैं। जाहिर है कि

मार्क्सवादियों के इस किले को ढहाने में पिछले कई साल से तन-मन से लगीं ममता बनर्जी का बहुत बड़ा हाथ है, लेकिन अपनी कब्र खोदने में वामपंथियों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। न वे समय को परख सके और न अपने राज्य की जनता की मन:स्थिति को। कम से कम उन्हें बीस साल पहले हुई सोवियत संघ और कम्युनिस्ट पूर्वी यूरोप की दुर्गति से तो सबक लेना ही चाहिये था। यहां तक कि चीन में भी अब उग्र वामपंथ के मसीहा माओ त्से तुंग का नाम कोई नहीं लेता।